समय पलक झपकते ही बीत जाता है. कहते हैं समय के पँख होते हैं;
पाँव नहीं. पिछले हफ़्ते श्रोता-बिरादरी को दो बार मौक़ा मिला आपसे बतियाने का.
31 जुलाई को रफ़ी साहब की बरसी पर जारी गीत पर मिले प्रतिसाद के
लिये आभार . आइये एक बार फ़िर एक नये गीत को याद करें;सुनें;गुनें
और हाँ ये गीत है ही ऐसा कि साथ में गुनगुनाएँ भी.
मल्हार के रंग में भीगी ये बंदिश आपके मन के आनंद को रोशन करेगी
इसका पूरा यक़ीन है हमें.
रविवार की सुबह नौ बजे के अनक़रीब श्रोता-बिरादरी की सुरीली बिछात आपकी मुंतज़िर रहती है. इस गीत को सुनने के बाद हमें फिर ये मानना पड़ता है कि फ़िल्म संगीत के बेजोड़ सृजनधर्मियों ने जो काम किया है वह कितना लाजवाब है. चित्रपट विधा में समय की जो सीमा है उसमें रहते हुए ,शास्त्रीय संगीत का मान बढ़ाते हुए और सबसे महत्वपूर्ण ...कविता की गरिमा पर क़ायम रहते हुई कैसे कैसे नायाब
कलेवर रचे हैं हमारे गुणी गीतकारों,गायकों,और संगीतकारों ने.गीत आपका सुना हुआ और सराहा हुआ है लेकिन इस मौसम की रंगत में इज़ाफ़ा करता हुआ ज़रा ज़्यादा ही सुरीला सुनाई देता है.
सुनियेगा ज़रूर....कल सुबह यानी 3 अगस्त को ये ख़ास गीत.
और हाँ आपको एक ख़ुशखबर देना तो भूल ही गये....4 अगस्त को फ़िर मिल रहे हैं रमाकु रशोकि का जन्मदिन मनाना है न हमें – आपको।
तो लगातार दो दिन तक श्रोता-बिरादरी के साथ बने रहियेगा.....ये आप ही की तो महफ़िल है जनाब.
Saturday, August 2, 2008
लगातार दो दिनों तक बने रहियेगा...श्रोता – बिरादरी के साथ....
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 7:16 PM
श्रेणी गुज़रे ज़माने के गीत.सावन, बरसात, श्रोता-बिरादरी, हिन्दी फ़िल्म संगीत
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2 टिप्पणियाँ:
हम तो श्रोता हैं, अपनी बिरादरी को छोडकर कहाँ जायेंगे. हाँ, एक अलबेले, सर्वगुण संपन्न कलाकार की जन्मतिथि याद दिलाने का शुक्रिया.
खुशामदीद !!
७ बजे ही उठ गया, मगर अभी तो समय है. दीवानगी का आलम तारी है.
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