Thursday, July 31, 2008
रफी साहब की बरसी और श्रोता-बिरादरी की एक खास पेशकश--एक अनमोल गाना
सिनेमा के संगीत ने हमे भावुक बने रहने की बार बार याद दिलाई है.ज़िन्दगी के सदमों को सहते हुए ग़म ग़लत कैसे किया जाए इसके लिये कई गीत रचे गए हैं.
इन गीतों से भारतीय जनमानस ने अपने ग़मों से निजात पाने के फ़ार्मूले गढ़े हैं
श्रोता-बिरादरी के इस विशेष सोपान में हम महान गायक मोहम्मद रफ़ी साहब को ख़िराजे अक़ीदत पेश करने एकत्र हुए हैं .रफ़ी साहब के बारे में जितना लिखना चाहे कम होगा.
विख्यात स्तंभकार श्री अजातशत्रुजी को यहाँ कोट करते हुए लगता है कि इससे अच्छी बात रफ़ी साहब के बारे में और क्या क्या की जा सकती है.
अजातशत्रुजी कहते हैं.....रफ़ी के गीतों को हम सुनते हैं तो उनके कमाल पर ख़ुशी से आँखें भीगने लगतीं हैं.ऐसा प्रतीत होता है कि वे प्रकृतिरूपी माता के भोले बच्चे हैं.जब वे गाने बैठते हैं तो इस माँ को ख़ुश करने के लिये अच्छा से अच्छा गा जाते हैं और माँ कि कृपा देखिये वह इस बालक से सर्वोत्तम गवा ले जातीं हैं.यह गुलूकार दुनिया में नहीं लेकिन सदा याद आता रहेगा.दिलों को लूटने वाले इस बाज़ीगर की कलाकारी को हिन्दुस्तानी माइकल जैक्सन समझ लें तो रामदुहाई.
फ़िल्म शराबी में रफ़ी साहब की गाई हुई ये नज़्म ज़िन्दगी की तल्ख़ियों की तर्जुमानी लगती है. रफ़ी साहब की आवाज़ की रेंज बेमिसाल थी लेकिन प्लैबैक सिंगिंग के लिये जहाँ जहाँ जो जो भी माफ़िक और माकूल हुआ रफ़ी साहब ने पेश किया.इस गीत को सुनें तो लगता है रफ़ी साहब ने अपने कंठ के खरज का पाताल छू लिया है. मुझे ले चल …ये मुखड़ा गाते वक़्त आवाज़ का सोज़ तो देखिये....सारे जहान का दर्द यहाँ उकेर लाए हैं रफ़ी साहब. हमें रफ़ी साहब को सुनते हुए तीन बातों पर विशेष रूप से ग़ौर करना चाहिये...एक...वे तलफ़्फुज़ (उच्चारण) की डिक्शनरी थे. दो... उनके गाने में कविता का सौंदर्य या दु:ख बनावटी नहीं लगता था.तीन उनकी आवाज़ में कभी भी किसी भी गाने में आवाज़ में किसी तरह का स्ट्रेस सुनाई नहीं देता. गायक संगीतकार और गीतकार के यश में बढ़ोत्तरी करता है....रफ़ी साहब ने जिस जिस भी गीतकार/संगीतकार के लिये गाया वे निहाल हो गए. उनकी धुनें अमर हो गईं...गीत लोकगीत बन गए.
संगीतकार मदनमोहन ने इस गीत में जिस तन्मयता से रफ़ी साहब को गवाया है वह यहाँ लिखने से ज़्यादा महसूसने की चीज़ है. कम्पोज़िशन में जिस तरह का कमाल मदनजी ने किया है वह सिचुएशन के प्रभाव को समृध्द करता है .पूरे गीत का मूड क्या होगा ये शुरूआती आलाप से ही व्यक्त हो गया है. आलाप एक तरह से गाने की फ़ायनल डिज़ाइन का ले-आउट है...वॉयलिन की पैरहन में रफ़ी साहब का सूफ़ियाना स्वर एक तिलिस्म की मानिंद बाहर आता है.
रिदम को देखिये बस एक लयकारी के लिये डफ़ या बड़े ड्रम की थपकी भर है. टीप में टेरती स्टिक्स हैं जो ताल के वजूद को साबित कर ने लिये विशिष्ट अंतराल पर टिक टिक कर रही है.
नायक के ग़म में इज़ाफ़ा करने के लिये इंटरल्यूड में जो वाद्य बजा है वह वॉयलिन नहीं तार-शहनाई है.इसे ग्रुप-वॉयलिन्स का आसरा वातावरण में दु:ख को विस्तार दे रहा है. हमारा मानना है कि ये नज़्म चाहे कम सुनी गई हो लेकिन इसका कम्पलीट इम्पैक्ट देखें तो फ़िल्म हक़ीक़त में कैफ़ी साहब की नज़्म मैं ये सोचकर तेरे दर से उठा था से ज़्यादा वज़नदार है.इस नज़्म को सुनकर लगता है क़ुदरत नें मदनमोहन जी से बेहतरीन कम्पोज़ करवा कर रफ़ी साहब से बेजोड़ गवा लिया है ;क्या ऐसे गीतों को करिश्मा कहना भाषा का अतिरेक होगा.
इस गाने को राजेंद्र कृष्ण ने लिखा है । राजेंद्र कृष्ण की ख़ासियत ये थी कि वे अकसर फिल्में इस शर्त पर स्वीकार करते थे कि फिल्म की पटकथा और गाने दोनों उनके होंगे । आमतौर पर हम राजेंद्र कृष्ण को एक बेहद गंभीर और सेन्टीमेन्टल गानों का शायर मानते हैं पर वो बेहद मज़ाकिया इंसान भी थे । कमाल के बंदे । इस गाने के एक एक लफ्ज़ में बेक़रारी घुली हुई है । रफी साहब ने इस गाने के जज्बात को बेहद कुशलता से निभाया है । इस गाने में किसी भूले बिसरे गुजरे वक्त की बात की जा रही है । खास बात ये है कि जिंदगी में कभी शराब ना पीने के बावजूद रफी साहब ने अपने कुछ गानों में नशे की तरंग को बखूबी निभाया है । फिल्म संगीत के क़द्रदान इस देवदासी नग्मे को रफी साहब के सबसे अनमोल गानों में गिनते हैं । शायरी के नज़रिये से भी ये कोई फिल्मी गीत कम है और मुहब्बत की एक अनमोल नज़्म ज्यादा है । राजेंद्र कृष्ण, मदनमोहन और इन सबसे ऊपर रफ़ी साहब को हमारा बारंबार सलाम ।
मुझे ले चलो, आज फिर उस गली में
जहाँ पहले-पहले, ये दिल लड़खड़ाया
वो दुनिया, वो मेरी मोहब्बत की दुनिया
जहाँ से मैं बेताबियाँ लेके आया
मुझे ले चलो
जहाँ सो रही है मेरी ज़िंदगानी
जहाँ छोड़ आया मैं अपनी जवानी
वहाँ आज भी एक चौखट पे ताज़ा
मोहब्बत के सजदों की होगी निशानी
मुझे ले चलो।।
वो दुनिया जहाँ उसके नक़्श\-ए\-कदम हैं
वहीं मेरी खुशियाँ, वहीं मेरे ग़म हैं
मैं ले आऊँगा खा़क उस रहगुज़र की
के उस रहगुज़र के तो ज़र्रे सनम है
मुझे ले चलो
वहाँ एक रँगीं चिलमन के पीछे
चमकता हुआ उसका, रुख़सार होगा
बसा लूँगा आँखों में वो रोशनी मैं
यूँ ही कुछ इलाज\-ए\-दिल\-ए\-ज़ार होगा
मुझे ले चलो \
मुझे ले चलो, आज फिर उस गली में
जहाँ पहले\-पहले, ये दिल लड़खड़ाया
वो दुनिया, वो मेरी मोहब्बत की दुनिया
जहाँ से मैं बेताबियाँ लेके आया
मुझे ले चलो
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 8:50 AM
श्रेणी फिल्म शराबी, मदनमोहन, मोहम्मद रफी, रफी
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14 टिप्पणियाँ:
रफी साहब जैसा सुरीला गायक हज़ारोँ बरस तक पैदा ना होगा -
रफी साहब अमर रहेँ!
हमारी नम्र अँजलि इस सुरोँ के बादशाह को ~~~
अनमोल गीत के लिये आपका शुक्रिया
- लावण्या
मोहम्मद रफी की आवाज़ का जादू तो सीधे दिल पर असर करता है
बहुत बहुत शुक्रिया इतनी खुबसूरत गाने सुनने के लिए
आज उनके गाने सुन कर ही उनको सही श्रदांजली दी जा सकती है
शानदार गीत चुनकर लाये हैं संजय भाई, रफ़ी साहब को हमारी भी आदरांजलि…
इस गाने के एक एक लफ्ज़ में बेक़रारी घुली हुई है...saath hi bahut sukuun bhi hai ...shukriya sunvaaney ka ..
pahali baar suna bahut khub....! dhanyavaad
संजय भाई बहुत शुक्रिया, जो यह गीत पुन: सुनवाया
लगा आज इक दिवस सुनहरा फिर से लौट द्वार पर आया
योंही हलचल रहें उठाते आप विगत की शांत झील में
है हर गीत ह्रदयस्पएर्शी, जो भी रफ़ी साहब ने गाया
एक प्रेम भरी गुज़ारिश आप सभी से.
श्रोता-बिरादरी में प्रकाशित समीक्षाएँ संयुक्त उपक्रम हैं.यूनुस ख़ान,सागर नाहर और मैं,हम तीनो मिल कर हर एक प्रविष्टि को जाँचते,परखते और शोधते हैं.ईमेल के ज़रिये आपस में संवाद सधता है और तब मुकम्मिल होती है एक पोस्ट . आपने नोट किया होगा कि posted by shroto biradari ही लिखते हैं हम.वजह बड़ी साफ़ है कि तीन संगीतप्रेमी मिलकर एक गीत रचना में संयुक्त रूप से विचार करें और लिखे.
निवेदन इतना भर है कि अपनी टिप्पणियों में व्यक्तिगत नाम का उल्लेख न करें (जैसे मेरे लिये उपरोक्त टिप्पणियों में किया गया है)जिनसे लगातार संपर्क में रहता हूँ उन्हें ईमेल कर इतल्ला देने का मकसद इतना भर है कि आप सचेत होकर श्रोता बिरादरी की बिछात पर शिरकत करें. इस ब्लॉग को शुरू करने के पीछे उद्देश्य यही है कि साझा कोशिशें भी क़ामयाब हो सकती हैं एक तो यह साबित हो ..लेखन की मोनोटनी न हो ये है दूसरी वजह और रूटीन संगीत पोस्ट्स से हटकर कभी कोई , कभी कोई मिलजुल कर एक समीक्षा को साकार करें.
आशा है आप मेरा इसरार समझ गए होंगे..आगामी टिप्पणियों में श्रोता बिरादरी को ही संबोधित करे; हम सब का हौसला बढ़ेगा.
बात छोटी सी है लेकिन हम तीनो के संगसाथ को मज़बूती देगी....और शायद तब ही हम श्रोता बिरादरी के सिलसिले को सुदीर्घ बना पाएंगे.
आज की शाम रफ़ी जी के नाम... एक अजब सी कशिश है उनकी आवाज़ में जो सीधे दिल की गहराई तक चली जाती है..
श्रोता बिरादरी के भाइयों को मेरा प्रणाम और आप लोगों की दाद देना चाहूँगा की इस बेहद ही खूबसूरत गीत को आपने हम तक पहुँचाया. रफी साहब के करोडों दीवाने शायद इस गाने की महक से वंचित रहे होंगे, परन्तु अगर वेह इस बेजोड़ गीत को सुनेंगे तो अवश्य ही मंत्रमुग्ध हो बैठेंगे. आप सभी को बोहत बोहत धन्यवाद.
Shrotabiradari team has done an excellent job today, a day when we can salute the immortal singer and his thousand songs. Right day, right presentation.
Thanks a ton.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
शुक्रिया इस बेजोड़ नग़्मे को सुनवाने के लिए संजय भाई। रफ़ी साहब के कहने क्या ! वो तो हर लम्हां हमारे साथ जी रहे हैं।
रफी साहब , राजेन्द्र किशन और मदन मोहन का सम्मिलित प्रभाव बहुत सुंदर !!!!!
Unforgettable yet unforgotten Song.
दर्द की इंतेहा, नशे का सुरूर , हीर जैसी बंदिश, मगर बेहद कोमल , की दर्द में कहीं और ईजाफ़ा नही हो जाये, वाह.
लगता है , यहां - कभी ना कभी, कभी खुद पे कभी हालात पे, मैं ये सोच कर ... सभी गीत इस गीत में समा गये है.
How can I type in Hindi here?
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