आइये स्व.मुकेशजी के निधन के दिन शायर श्याम कुमार श्याम (इन्दौर) द्वारा मुकेशजी के लिये ही लिखी गई भावपूर्ण पंक्तियों को पढ़कर आज की बात की शुरूआत करें....
अश्क को एज़ाज़ देगा कौन अब,आह को अंदाज़ देगा कौन अब
तुम अचानक हो गए ख़ामोश क्यों,दर्द को आवाज़ देगा कौन अब
इस बात को मान ही लेना चाहिये कि जो गीत मुकेशजी ने गाये हैं वे न केवल संगीत या कविता के लिहाज़ से कालजयी हैं बल्कि इस बात की शिनाख़्त भी करते हैं कि बीते समय में मनुष्य कितना भला,नेक और सादा तबियत था. यही सारी ख़ूबियाँ मुकेशजी के निजी जीवन और उनके गीतों में प्रतिध्वनित होतीं हैं.क्योंकि हमारा चित्रपट संगीत न केवल कथानक को गति देने के लिये रचा गया वरन वह अपने समय के रहन-सहन,ज़ुबान,तहज़ीब और जीवन शैली का गवाह भी है.
मुकेशजी के व्यक्तित्व पर बात करते समय इस बात व्यक्त करने में कोई संकोच नहीं कि संख्या की दृष्टि से मुकेशजी अन्य गायक से ज़रूर दूर थे लेकिन गीतों की पॉप्युलरिटि को लेकर वे हमेशा प्रथम पंक्ति के दुलारे और अज़ीज़ सुर-कुमार बने रहे.
तक़रीबन न जाने गए संगीतकार कृष्णदयाल बी.एस.सी ने आज श्रोता-बिरादरी पर बज रहे इस गीत को सिरजा था.गीतकार थे क़मर जलालाबादी.अब जब इस गीत को प्लेयर पर ऑन करें तो
सुनें की कैसी धीमी पदचाप से आमद ले रही है धुन.
लुट गया दिन रात का आराम क्यूं
ऐ मुहब्बत तेरा ये अंजाम क्यूं
हमने मांगी थी मुहब्बत की शराब
लाई किस्मत आंसुओं का जाम क्यूं..लुट गया
दिल समझता है के तू है बेवफ़ा
आ रहा है लब पे तेरा नाम क्यूं..
लुट गया दिन रात का आराम क्यूं
ऐ मुहब्बत तेरा ये अंजाम क्यूं
यहाँ मुकेशजी के स्वर ने चोला बदला है.बताते हैं क्यों.जिस फ़िल्म का यह गीत है यानी लेख वह सन 1949 में रिलीज़ हुई.गीत में मुकेशजी पर सहगल घराना छाया है लेकिन यह संगीतकार की मांग पर हुआ है.क्योंकि मुकेशजी इसके पहले आग(राम गांगुली) अनोखा प्यार (अनिल विश्वास) मजबूर (ग़ुलाम हैदर) मेला और अंदाज़ (नौशाद)के लिये गा चुके हैं और ये सारी फ़िल्में जिनका हमने ज़िक्र किया है 1948 की हैं यानी तब तक मुकेश सहगल एरा(युग) से बाहर आकर अपनी शैली विकसित कर चुके हैं.यहीं आकर वे साबित कर जाते हैं अपनी गान प्रतिभा.
मुकेश को सुनते हुए बार बार ये लगता है कि वो हमारी निराशा की आवाज़ तो हैं ही । वो एक आम आदमी के दुखों उसकी पीड़ाओं और संत्रास को तो स्वर देते ही हैं । वो हमारे उल्लास का स्वर भी हैं । वो एक ऐसे प्रकाश स्तंभ हैं जो हमें कभी 'किसी की मुस्कुराहटों पर निसार' होने की ऊर्जा देते हैं तो दूसरी तरफ हमें बताते हैं कि 'जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां' । हमें लगता है कि एक आदमी के दिल के सबसे क़रीब है मुकेश की आवाज़ क्योंकि वो सबसे सच्ची और सबसे अच्छी आवाज़ है । शोर और हाई बीट्स के इस युग में मुकेश की आवाज़ जैसे हमसे कह रही है कि 'मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो' ।
इस गीत को सुनते हुए आप महसूस करेंगे कि वक़्त कैसे थमता है और लुट गया दिन-रात का आराम क्यूँ...शब्द को ग़मगीत कैसे बनाती है मुकेश की आवाज़.दु:ख,नैराश्य और पीड़ा का राजकुमार बन मुकेशजी सिचुएशन का कैसा अदभुत विज्यअल रच गए हैं.मुकेश को हटाकर यदि इस गीत को नहीं सुना जा सकता तो समझदारी का तक़ाज़ा इसी में है कि हम अहंकार छोड़ कर कहें..प्रणाम मुकेशचंद्र माथुर.
Wednesday, August 27, 2008
आ रहा है लब पे तेरा नाम क्यूँ - स्मृति शेष : मुकेश
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 9:00 AM
श्रेणी क़मर जलालाबादी, फ़िल्म लेख, मुकेश, संगीतकार कृष्णदयाल.
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6 टिप्पणियाँ:
गहरा स्मरण ! मुकेश की स्मृति को प्रणाम ।
अपने आप में संपूर्ण पोस्ट.
कुछ साल पहले की घटना का ज़िक्र .
एक संगीत की मेह्फ़िल थी जहां मुकेश जी को याद किया जा रहा था. कार्यक्रम के प्रस्तुत कर्ता नें जब श्रोताओं से भी गाने का आग्रह किया तो पूरा सभागृह जैसे एक स्वर में गाने लगा- निकल पडे है खुल्ली सडक पर.. और वह प्रोग्रामे एक मात्र ऐसा होना चाहिये, जहां सभी श्रोता गायक थे. मुकेश जी की आवाज़ का जो अपनापन एक आम इंसान मेह्सूस करता है उसकी अभिव्यक्ति करना भी सरल कर दिया है मुकेश जी ने अपने गाने के अंदाज़ और बिना क्लिष्ट्ता लिये हुए अदायगी की वजह से.
लेकिन इससे यह कहना गलत होगा कि उनका गाना हर कोइ गा सकता है. नही जनाब, वही गा सकता है जो मन से यह कहे - किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है..
तभी तो मेरे ब्लॊग पर यही ध्येय वाक्य है.
वो मेरा ही दर्द था जो उसकी आवाज़ से बहता था.....मुकेश हम सब के दिल में सदा बसे रहेंगे
नमन!!
aaabhar is prastuti ka.
A rare song, less heard.
Thanx for the presentation.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
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