विलक्षण मौलिकता में पश्चिमि रंग मिला कर कोई संगीतकार कोई नया सोपान रच दे तो समझ जाइयेगा कि ये करिश्मा दादा सचिनदेव बर्मन के हस्ते ही हो रहा है.संगीतकारों की भीड़ में जो व्यक्ति
अलग नज़र आता है उसमें बर्मन दा का नाम बाइज़्ज़त शामिल किया जा सकता है. वाद्यों को जिस ख़ूबसूरती से बर्मन दा इस्तेमाल करते हैं वह न केवल चौंकाता है बल्कि एक लम्हा इस बात की तस्दीक की करता है कि छोटे बर्मन या पंचम दा को रचनात्मकता के सारे गुण घुट्टी में ही मिले थे.आर्केस्ट्रा की बेजोड़ कसावट बर्मन दा ख़ासियत है .उन्हें मिली संगीतकार की कुदरती प्रतिभा का ही नतीजा है कि “पिया तोसे नैना लागे रे” से लेकर “सुनो गज़र क्या गाए” जैसी विपरीत मूड की रचनाएँ उनके सुरीरे संगीत की उपज हैं.यह स्वीकारने में संकोच नहीं करना चाहिये कि सचिनदेव बर्मन की मौजूदगी चित्रपट संगीत के समंदर का वह प्रकाश स्तंभ है जिसके आसरे मेलड़ी के दस्तावेज़ रचने की नित नई राह रची गई है.क्लब गीत,लोक गीत और शास्त्रीय संगीत का आधार बना कर बांधी गई धुने सिरजने वाला ये बंगाली राजा पूरे देश में पूजनीय है.
आइये अब सचिन दा और लता दी के बीच के सांगीतिक रिश्ते की बात हो जाए.अनिल विश्वास के बाद वे सचिन दा ही हैं जिनके लिये सृष्टि की ये सबसे मीठी आवाज़ नतमस्तक नज़र आतीं हैं.यूँ ये विनम्रता लताजी ने अपने तमाम संगीतकारों के लिय क़ायम रखी लेकिन सचिन दा की बंदिशों में लता-स्वर से जो अपनापा झरता है वह एक विस्मित करता है. लता-सचिन का संगसाथ शुभ्रता,पवित्रता और भद्रता का भावुक संगम हे.
श्रोता-बिरादरी की जाजम पर गूँज रहा नग़मा विरह गीतिधारा का लाजवाब रूपक गढ़ रहा है. छोटे छोटे आलाप और मुरकियों के साथ लता मंगेशकर की गान-विशेषज्ञता की अनूठी बानगी है ये गीत. सन २०११ में जब लता स्वर उत्सव समारोहित हो रहा है तब इस गीत को ध्वनि-मुद्रित हुए ५५ बरस हो चुके हैं और फ़िर भी लगता है कि अभी पिछले महीने ही इसे पेटी पैक किया गया है. कारण यह है कि समय और कालखण्ड बदल गया हो लेकिन घनीभूत पीड़ा के पैमाने नहीं बदले. मोबाइलों,ईमेलों और मल्टीप्लैक्सों के ज़ख़ीरों के बावजूद यादों के तहख़ाने में ऐसी सुरधारा दस्तेयाब है जो आज भी हमारी इंसानी रूहों को झिंझोड़ कर रख देने में सक्षम है. सालों बाद भी ये गीत आप सुनेंगे तो शर्तिया कह सकते हैं कि सचिन घराने का लोभान वैसा ही महकेगा जैसा सन १९५५ में जन्म लेते समय महका होगा. मुखड़े में लम्बी हो गई शब्द में ऐसा लगता है जैसे ये जुदाई सदियों की है. अंतरे में लताजी अपने तार-सप्तक को स्पर्श कर ठिकाने पर किस ख़ूबसूरती से लौट आईं हैं ये जानने के लिये आपको ये गाना दो-तीन बार ज़रूर सुनना चाहिये.
चलिये सचिन देव बर्मन और लता मंगेशकर के इस अदभुत गीत में गोते लगाते हैं.
फ़िल्म : सोसायटी
वर्ष : १९५५
संगीतकार : सचिनदेव बर्मन.

लता तिरासी और तिरासी अमर गीत:
२८ सितम्बर को लताजी का जन्मदिन है.वे ८३ बरस की हो जाएंगी. कल श्रोता बिरादरी की कोशिश होगी कि वह आपको लताजी के ऐसे ८३ सुरीले गीतों की सूची पेश कर दे जो स्वर-कोकिला को भी पसंद हैं.बस थोड़ा सा इंतज़ार कीजिये और ये सुरीला दस्तावेज़ आप तक आया ही समझिये.
२८ सितम्बर को लताजी का जन्मदिन है.वे ८३ बरस की हो जाएंगी. कल श्रोता बिरादरी की कोशिश होगी कि वह आपको लताजी के ऐसे ८३ सुरीले गीतों की सूची पेश कर दे जो स्वर-कोकिला को भी पसंद हैं.बस थोड़ा सा इंतज़ार कीजिये और ये सुरीला दस्तावेज़ आप तक आया ही समझिये.
आइये अब सचिन दा और लता दी के बीच के सांगीतिक रिश्ते की बात हो जाए.अनिल विश्वास के बाद वे सचिन दा ही हैं जिनके लिये सृष्टि की ये सबसे मीठी आवाज़ नतमस्तक नज़र आतीं हैं.यूँ ये विनम्रता लताजी ने अपने तमाम संगीतकारों के लिय क़ायम रखी लेकिन सचिन दा की बंदिशों में लता-स्वर से जो अपनापा झरता है वह एक विस्मित करता है. लता-सचिन का संगसाथ शुभ्रता,पवित्रता और भद्रता का भावुक संगम हे.
श्रोता-बिरादरी की जाजम पर गूँज रहा नग़मा विरह गीतिधारा का लाजवाब रूपक गढ़ रहा है. छोटे छोटे आलाप और मुरकियों के साथ लता मंगेशकर की गान-विशेषज्ञता की अनूठी बानगी है ये गीत. सन २०११ में जब लता स्वर उत्सव समारोहित हो रहा है तब इस गीत को ध्वनि-मुद्रित हुए ५५ बरस हो चुके हैं और फ़िर भी लगता है कि अभी पिछले महीने ही इसे पेटी पैक किया गया है. कारण यह है कि समय और कालखण्ड बदल गया हो लेकिन घनीभूत पीड़ा के पैमाने नहीं बदले. मोबाइलों,ईमेलों और मल्टीप्लैक्सों के ज़ख़ीरों के बावजूद यादों के तहख़ाने में ऐसी सुरधारा दस्तेयाब है जो आज भी हमारी इंसानी रूहों को झिंझोड़ कर रख देने में सक्षम है. सालों बाद भी ये गीत आप सुनेंगे तो शर्तिया कह सकते हैं कि सचिन घराने का लोभान वैसा ही महकेगा जैसा सन १९५५ में जन्म लेते समय महका होगा. मुखड़े में लम्बी हो गई शब्द में ऐसा लगता है जैसे ये जुदाई सदियों की है. अंतरे में लताजी अपने तार-सप्तक को स्पर्श कर ठिकाने पर किस ख़ूबसूरती से लौट आईं हैं ये जानने के लिये आपको ये गाना दो-तीन बार ज़रूर सुनना चाहिये.
चलिये सचिन देव बर्मन और लता मंगेशकर के इस अदभुत गीत में गोते लगाते हैं.
फ़िल्म : सोसायटी
वर्ष : १९५५
संगीतकार : सचिनदेव बर्मन.
3 टिप्पणियाँ:
मां सरस्वती स्वरूप प्रिय लता जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें
सिर्फ नाम ही काफी है
hey, very nice site. thanks for sharing post
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