Sunday, August 31, 2008

एक अंतरे के गीत में समोया पूरी क़ायनात का दर्द

हमारे चित्रपट संगीत में कुछ ऐसी बेजोड़ बंदिशें रचीं गईं हैं कि कहीं कहीं वे संवाद और दृश्य से ज़्यादा महत्वपूर्ण काम कर गुज़रती है . फ़िल्म देवदास तीन बार बनी है.सबसे पहले इसके नायक के.एल.सहगल रहे, निर्देशन किया प्रमथेश चंद्र बरूआ ने । ,दूसरी बार नायक रहे दिलीपकुमार और निर्देशन किया पहली बार की देवदास में कैमेरामैन रहे बिमल रॉय ने । तीसरी बार इस दशक के मेगा-स्टार शाहरूख़ ख़ान नायक रहे और निर्देशन किया संजय लीली भंसाली ने । एक संयोग देखिये तीनों संस्करणों के संगीत ने लोकप्रियता के झंडे गाड़े. आज श्रोता-बिरादरी पर समीक्षित गीत महज़ एक अंतरे भर का गीत है लेकिन नग़मानिगार साहिर लुधियानवी,संगीतकार सचिनदेव बर्मन और गायक तलत महमूद द्वारा किये गये इस सांगीतिक कारनामे एक विचित्र क़िस्म की वेदना है .यहाँ ग़ौर करने लायक बात ये है कि देवदास की पीड़ा को आवाज़ देते हुए तलत साहब दर्द के शहज़ादे बन गए हैं.उनकी आवाज़ का क़ुदरती कंपन यहा क्या कहर ढा रहा है ज़रा ग़ौर करियेगा. तलत साहब द्वार उड़ेले गये दर्द को सुनते हुए महाकवि ग़ालिब का ये शेर भी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ.......

नीम बख़्शीश अज़ाब है यारब
दिल दिया है तो उसमें दर्द भी दे


माना ये जाता है कि बिमल रॉय की बनाई देवदास अपने संगीत और अपने प्रभव की दृष्टि से बेहद प्रभावी थी । और आज भी उसका असर कम नहीं हुआ है । बिमल रॉय ने अपनी 'देवदास' के लिए बड़ी नामी हस्तियां जुटाई थीं । क्‍या आपको पता है कि इस फिल्‍म की पटकथा और संवाद जाने माने कहानीकार राजिंदर सिंग बेदी ने लिखे थे । छायांकन कमल बोस का था । दिलीप कुमार, सुचित्रा सेन, वैजयंती माला और मोतीलाल जैसे कलाकारों ने देवदास को कालजई बना दिया । अब इस गाने को सुनते हुए ये भी सोचिए कि आप आज से तकरीबन तिरेपन साल पहले आई थी ।



तलत साहब ने कितना कम गाया है संख्या की दृष्टि से , लेकिन कितना बेजोड़ गाया है. जनश्रुति है कि इस गीत की सिचुएशन में सचिन दा ने तलत साहब को स्टुडियो में ज़मीन पर लिटा कर ही ये पंक्तियाँ रेकॉर्ड कीं थीं . दिलीपकुमार नशे में धुत सड़क पर पड़े गा रहे हैं सो वह इफ़ेक्ट लेटे लेटे गाने का सचिन दा द्वारा वैसे ही क्रिएट करवाया गया है. साज़ बहुत कम हैं ; महज़ सारंगी है जो तलत साहब की वेदना को विराट कर रही है और गीत अंत होते होते एक टुकड़ा भर सितार बजी है.रिद्म है ही नहीं और हौले हौले से फ़ैलता इस गीत या कहें कविता का जादू आपको एक लम्हा नैराश्य के साक्षात दर्शन करवा देता है.
ये रहे इस गाने के बोल---

मितवा लागी रे ये कैसी अनबुझ आग
व्‍याकुल जियरा, व्‍याकुल नैना
इक इक चुप में, सौ सौ बैना
रह गए आंसू लुट गये राग ।।




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चित्र रीडिफ.कॉम और गुयाना फ्रेंड्ज़ से साभार

Saturday, August 30, 2008

मख़मली आवाज़ में वेदना की सर्वप्रिय गाथा का अनमोल गीत

वेदना,पीड़ा,दु:ख़ या ग़म  ज़िन्दगी को एक नया मेयार देते है.
भारतीय कथा-कथन के सर्वकालिक हिट पात्र को अभिव्यक्त करता एक अनमोल गीत
श्रोता-बिरादरी की रविवासरीय जाजम पर आ रहा है. बरसात,पर्व,राष्ट्रप्रेम और शास्त्रीय संगीत की दावतों में तो श्रोता-बिरादरी ने आपको आमंत्रित किया ही है आइये एक दर्द भरा गीत भी सुन लिया जाए. देश के दस सर्वकालिक अभिनेताओं,गीतकारों,संगीतकारों और गायकों की सूची बने तो निश्चित रूप से यह चौकड़ी शुमार करनी ही पड़ेगी जिसका तानाबाना कल श्रोता बिरादरी के गीत के इर्द गिर्द घूमा है.

आज संगीत में शोर का जो आलम है उसमें शब्द और स्वर कराहते सुनाई देते है जबकि कल इस गीत को सुनियेगा तो आप महसूस करेंगे कि हमने इन बीते पचास बरसों में जो जो भी गँवाया है उसमें बेशक़ीमती है संगीत का वह मासूम अहसास जिससे ज़िन्दगी को नये आयाम और नज़रिये मिलते रहे हैं.

बहरहाल चलते चलते आगामी सप्ताह में प्रारंभ हो रहे महापर्व गणेश उत्सव और रमज़ान की अग्रिम शुभकामनाएँ आप सभी श्रोता-बिरादरों के प्रति.

कल रविवार 31 अगस्त श्रोता-बिरादरी टाइम पर मुलाक़ात होती है.आ रहे हैं न....

Wednesday, August 27, 2008

आ रहा है लब पे तेरा नाम क्यूँ - स्मृति शेष : मुकेश

आइये स्व.मुकेशजी के निधन के दिन शायर श्याम कुमार श्याम (इन्दौर) द्वारा मुकेशजी के लिये ही लिखी गई भावपूर्ण पंक्तियों को पढ़कर आज की बात की शुरूआत करें....

अश्क को एज़ाज़ देगा कौन अब,आह को अंदाज़ देगा कौन अब
तुम अचानक हो गए ख़ामोश क्यों,दर्द को आवाज़ देगा कौन अब



इस बात को मान ही लेना चाहिये कि जो गीत मुकेशजी ने गाये हैं वे न केवल संगीत या कविता के लिहाज़ से कालजयी हैं बल्कि इस बात की शिनाख़्त भी करते हैं कि बीते समय में मनुष्य कितना भला,नेक और सादा तबियत था. यही सारी ख़ूबियाँ मुकेशजी के निजी जीवन और उनके गीतों में प्रतिध्वनित होतीं हैं.क्योंकि हमारा चित्रपट संगीत न केवल कथानक को गति देने के लिये रचा गया वरन वह अपने समय के रहन-सहन,ज़ुबान,तहज़ीब और जीवन शैली का गवाह भी है.

मुकेशजी के व्यक्तित्व पर बात करते समय इस बात व्यक्त करने में कोई संकोच नहीं कि संख्या की दृष्टि से मुकेशजी अन्य गायक से ज़रूर दूर थे लेकिन गीतों की पॉप्युलरिटि को लेकर वे हमेशा प्रथम पंक्ति के दुलारे और अज़ीज़ सुर-कुमार बने रहे.

तक़रीबन न जाने गए संगीतकार कृष्णदयाल बी.एस.सी ने आज श्रोता-बिरादरी पर बज रहे इस गीत को सिरजा था.गीतकार थे क़मर जलालाबादी.अब जब इस गीत को प्लेयर पर ऑन करें तो
सुनें की कैसी धीमी पदचाप से आमद ले रही है धुन.




लुट गया दिन रात का आराम क्यूं

ऐ मुहब्बत तेरा ये अंजाम क्यूं
हमने मांगी थी मुहब्बत की शराब
लाई किस्मत आंसुओं का जाम क्यूं..लुट गया
दिल समझता है के तू है बेवफ़ा
आ रहा है लब पे तेरा नाम क्यूं..
लुट गया दिन रात का आराम क्यूं
ऐ मुहब्बत तेरा ये अंजाम क्यूं
यहाँ मुकेशजी के स्वर ने चोला बदला है.बताते हैं क्यों.जिस फ़िल्म का यह गीत है यानी लेख वह सन 1949 में रिलीज़ हुई.गीत में मुकेशजी पर सहगल घराना छाया है लेकिन यह संगीतकार की मांग पर हुआ है.क्योंकि मुकेशजी इसके पहले आग(राम गांगुली) अनोखा प्यार (अनिल विश्वास) मजबूर (ग़ुलाम हैदर) मेला और अंदाज़ (नौशाद)के लिये गा चुके हैं और ये सारी फ़िल्में जिनका हमने ज़िक्र किया है 1948 की हैं यानी तब तक मुकेश सहगल एरा(युग) से बाहर आकर अपनी शैली विकसित कर चुके हैं.यहीं आकर वे साबित कर जाते हैं अपनी गान प्रतिभा.

मुकेश को सुनते हुए बार बार ये लगता है कि वो हमारी निराशा की आवाज़ तो हैं ही । वो एक आम आदमी के दुखों उसकी पीड़ाओं और संत्रास को तो स्‍वर देते ही हैं । वो हमारे उल्‍लास का स्‍वर भी हैं । वो एक ऐसे प्रकाश स्‍तंभ हैं जो हमें कभी 'किसी की मुस्‍कुराहटों पर निसार' होने की ऊर्जा देते हैं तो दूसरी तरफ हमें बताते हैं कि 'जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां' । हमें लगता है कि एक आदमी के दिल के सबसे क़रीब है मुकेश की आवाज़ क्‍योंकि वो सबसे सच्‍ची और सबसे अच्‍छी आवाज़ है । शोर और हाई बीट्स के इस युग में मुकेश की आवाज़ जैसे हमसे कह रही है कि 'मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो' ।

इस गीत को सुनते हुए आप महसूस करेंगे कि वक़्त कैसे थमता है और लुट गया दिन-रात का आराम क्यूँ...शब्द को ग़मगीत कैसे बनाती है मुकेश की आवाज़.दु:ख,नैराश्य और पीड़ा का राजकुमार बन मुकेशजी सिचुएशन का कैसा अदभुत विज्यअल रच गए हैं.मुकेश को हटाकर यदि इस गीत को नहीं सुना जा सकता तो समझदारी का तक़ाज़ा इसी में है कि हम अहंकार छोड़ कर कहें..प्रणाम मुकेशचंद्र माथुर.

Tuesday, August 26, 2008

कल श्रोता बिरादरी में मीठे मुकेश की भावभीनी याद

जिस गायक ने अपनी आवाज़ की मर्यादा में जादुई करिश्मे किये उसी अमर गायक मुकेश को कल श्रोता-बिरादरी एक भावभीनी आदरांजली पेश करने जा रही है. सहगल गान परम्परा के इस अनूठे गायक ने पूरी ईमानदारी से अपनी निज-पहचान को ईजाद किया. गले के साथ करिश्मे करने वाले समकालीन गायकों में अपने चुनिंदा गीतों से एक बड़ा श्रोता-संसार भी खड़ा किया. सादा तबियत और सरलता के पर्याय मुकेशजी श्रोता-बिरादरी पर सुनाई देंगे एक लगभग अनसुने लेकिन दिल को छू लेने वाले गीत के साथ.

चयनित गीत में भी मुकेश गायकी अंदाज़ सुनाई देगा और आप महसूस करेंगे कि तमाम सीमाओं में रह कर अपने सुर से क्या ग़ज़ब ढाया है इस जनप्रिय गायक ने.
श्रोता-बिरादरी के मुकेश स्मृति संस्करण की सूचना अपने मुकेश मुरीद परिजनों और मित्रों तक ज़रूर दीजियेगा.
बुधवार २७ अगस्त,समय वही श्रोता-बिरादरी टाइम.

Sunday, August 24, 2008

घर आ जा घिर आई बदरा साँवरिया - पंचम दा की अप्रतिम पहली धुन

साठ के दशक की शुरूआत थी.लताजी और संगीतकार सचिनदेव बर्मन में अनबन चल रही थी. उन्हीं के पुत्र राहुलदेव बर्मन जिसे सब प्यार से पंचम कहते थे ; ने क़ौल ले रखा था कि पहला गीत तो लता मंगेशकर के साथ ही रेकॉर्ड करूंगा. पंचम दा को फ़िल्म मिली छोटे नवाब(1961) ये फ़िल्म पंचम के ताज़िन्दगी मित्र रहे हास्य अभिनेता महमूद ने बनाई थी । अब चूँकि पिता से लताजी का अबोलो था तो आज प्रस्तुत होने जा रहे गीत घर आजा घिर आई बदरा साँवरिया की रिहर्सल भी पंचम दा ने अपने घर की सीढ़ियों पर बाजा लेकर लता दी के साथ की. जब भी राहुलदेव बर्मन का संगीत सुनें एक बात पर ज़रूर ग़ौर कीजियेगा कि ये हुनरमंद संगीतकार रिदम का राजा है. ख़ास कर जहाँ भी ख़ालिस तबला बजा है वहाँ तो कमाल ही हुआ है. ऐसा नहीं कि बहुत द्रुत में काम हुआ है पर आम तौर बजने वाली तालों से हटकर पंचम ताल को अलग अंदाज़ में बांधते हैं रिदम के नये नये अंदाज़ आपको इनके गाने में सुनने को मिलेंगे.मेहबूबा हो मेहबूबा (शोले)आजकल पाँव ज़मी पर नहीं पड़ते मेरे(घर)ओ माँझी रे नदिया की धारा (ख़ुशबू)जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा (कटी पतंग)या लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा(मासूम)कुछ ऐसे गीत हैं जिनमें आपको रिदम के जुदा जुदा रंग दिखाई देंगे.

ये इल्ज़ाम भी राहुलदेव बर्मन ने झेला कि संगीत की विकृति को इस संगीतकार ने शुरू किया लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिये संगीत हमेशा समकालीन परिदृश्य का हमक़दम रहा है. क्या ऐसा इल्ज़ाम लगाने वाले लोग पंचम दा की कि सर्वकालिक श्रेष्ठ कृति 1942 - ए लव स्टोरी को भूल जाते हैं जिसका एक एक गीत उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा उतरता है. ये भी याद रखना ज़रूरी होगा कि पंचम दा को उस्ताद अली अकबर ख़ाँ से सरोद सीखने का मौक़ा मिला है और उन्होने समय पर सरोद,सितार और बाँसुरी का बेहतरीन उपयोग अपने गीतों में किया है.

फ़िल्म छोटे नवाब का यह गीत लताजी के विरह गीतों की सूचि में बेझिझक शुमार किया जा सकता है. राग मालगुंजी (याद करें पं.विनायकराव पटवर्धन और पं.नारायणराव व्यास की ख्यात ख़याल रचना ब्रज में चरावत गैया) में निबध्द इस रचना को लताजी ने जिस शिद्दत से गाया है वह उन्हें वैष्णव पंथ की साधिका बना देता है. और पंचम दा को देखिये मैहर घराने के शाग़िर्द होने के नाते पं रविशंकर की सितार के सुर तो उनके कानों में पड़े ही होंगे तो कैसे छिड़ी है सितार इस गीत के इंटरल्यूड में. दोनो अंतरों की प्रथम पंक्ति सूना सूना घर मोहे डसने को आए रे और कस मस जियरा कसम मोरी दूनी रे के ठीक बाद उठी सारंगी की तड़प पर भी ध्यान दीजियेगा तो पाएंगे की शब्द और स्वर से ज़्यादा एक वाद्य कैसे बोलता है. फ़िर वही बात की लता जी गाने की उठान में जान ले लेतीं हैं इस गीत के मुखड़े में घर शब्द को लता जी ने जो पीड़ा दी है वह अन्य गायिकाओं से उन्हें विशिष्ट बनाती है.
दिलचस्‍प बात ये है कि पंचम की शुरूआत एक छोटी फिल्‍म से हुई थी । जाने-माने हास्‍य अभिनेता मेहमूद की बनाई फिल्‍म थी 'छोटे नवाब' । मेहमूद, पंचम और अमीन सायानी तीनों गहरे दोस्‍त
थे । मेहमूद ने फिल्‍म 'भूत बंगला' में तो अमीन सायानी से एक्टिंग भी करवाई थी । बहरहाल, पंचम ने इस फिल्‍म को 'छोटी' फिल्‍म मानकर संगीत नहीं दिया और जमकर मेहनत की । ये गाना शैलेंद्र ने लिखा है । राहुल देव बर्मन और शैलेंद्र की जोड़ी के कम ही गाने मुझे याद आते हैं । उस समय किसी को अंदाज़ा भी नहीं था कि इस फिल्‍म और इस गाने के ज़रिए एक इतिहास बन जाएगा । पर देखिए आज सैंतालीस साल बाद भी इस गाने को सुनें तो हर बार नया ही लगता है ।
इसलिए हम इसे कालजयी गीतों की श्रेणी में रखते हैं । इस गाने से पहले आपको आर.डी.बर्मन और लता जी की आवाजें भी सुनाई देंगी । 

shockwave player


घर आ जा घिर आए बदरा सांवरिया
मोरा जिया धक धक रे, चमके बिजुरिया ।।
सूना सूना घर मोहे डसने को आए रे 
खिड़की पे बैठी बैठी सारी रैन जाए रे
टप टिप सुनत मैं तो भई रे बावरिया ।।
घर आ जा ।।
कसमस जियरा कसक मोरी दूनी रे
प्‍यासी प्‍यासी अंखियों की गलियां हैं सूनी रे
जाने मोहे लागी किस बैरन की नजरिया ।।
घर आ जा ।।

समय की ताब में ये गीत पुराने नहीं पड़ते,पुरानी पड़तीं हैं हमारी रिवायते,हमारी सोच और हम ख़ुद . बेहतर होगा कि हम मन से स्वस्थ बने रहने के लिये इन गीतों की जुगाली करते रहें और शायद अब तक हमने कहा न हो लेकिन यही मक़सद है श्रोता-बिरादरी पर आपको न्योता देने का ...हर हफ़्ते....फ़िर मिलते हैं..अल्ला हाफ़िज़.

(चित्र: जनवरी १९९४ में राहुलदेव बर्मन का निधन हुआ.उसके कुछ अर्सा पहले लता अलंकरण १९९२-९३ प्राप्त करने वे इन्दौर गये थे. वहीं लिया गया ये चित्र.छायाकार वरिष्ठ कैमरामेन शरद पण्डित)

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Saturday, August 23, 2008

कल श्रोता-बिरादरी में एक रचनाधर्मी संगीतकार का पहला गीत.

संगीत तो जैसे उसे घुट्टी में ही मिला था. घर में पूरा वातावरण ही संगीतमय था.
कम उम्र में ही उसने अपने पिता के साथ संगीत की दुनिया को देखना परखना शुरू कर दिया था. लेकिन एक छटपटाहट थी कि जब भी शुरू करूंगा तो कुछ इस अंदाज़ मे कि मेरा काम अलहदा दिखाई देना चाहिये. और वह अपने संकल्प पर क़ायम रहा. जब भी ,जो भी काम किया , ऐसा कि मील का पत्थर बन गया. रिदम में कुछ ऐसे अलबेले प्रयोग किये कि सुनते ही आप कहें अरे ये तो वह संगीतकार है. हमारे अपने संगीत में पश्चिम का संगीत का रंग कुछ यूँ मिलाया कि नई पीढ़ी को जैसे अपनी मनचाही मुराद मिल गई.

पहले ही गीत में उसने देश की शीर्षस्थ आवाज़ से ऐसा गवाया कि वह गीत चित्रपट संगीत का कालजयी गीत बन गया. आइये याद करें और सुनें वही रचना रविवार 24 अगस्त की सुबह....

आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की बधाई.

Sunday, August 17, 2008

एक अदभुत नृत्य गीत-तेरे नैना तलाश करे जिसे वो है तुझ ही में कहीं दीवाने.

साठ का दशक समाप्ति पर था.सचिनदेव बर्मन अपने मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों साथ एक नयी फ़िल्म का संगीत रच रहे थे. अब दोस्तो वह दौर आयटम सांग का तो नहीं था लेकिन फ़िर भी फ़िल्म में कभी कभी ऐसी सिचुएशन निकलती थी जब गीत या नृत्य के ज़रिये फ़िल्म का कथानक और मज़बूत होता था. अरे हाँ फ़िल्म का नाम तो बताना ही भूल गए...फ़िल्म थी तलाश.जुबलीकुमार जी की एक और क़ामयाब फ़िल्म.


आइये संगीत के लिहाज़ से इस गीत की चर्चा हो जाए.सचिन दा ने इस नृत्य गीत को गवाया अपने समय के सिध्दहस्त गायक मन्ना डे से. मन्ना दा इसके पहले भी शास्त्रीय संगीत पर आधारित कई लाजवाब गीत लेकर अपनी गायकी का लोहा मनवा चुके थे और इस गीत की धुन तो निश्चित रूप से उनके स्वर की विशेष दरकार रखती थी. मन्ना दा ने अपने संगीतकार के साथ पूरा न्याय किया है इस गीत में.


ये गीत फ़िल्माया गया है या यूँ कह सकते हैं पर्दे पर जिन्होंने इस गीत पर अभिनय किया है वह हैं अपने ज़माने जानेमाने कलाकार शाहू मोडक पर. इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान मोडक जी का कैरियर लगभग ढ़लान पर था. एक समय था जब धार्मिक फ़िल्मो में उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली थी. अब इस गीत में उनके एक्सप्रेशन और देहभाषा देखिये , आपको लगेगा हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के किसी घराने का कोई बड़ा गायक आपसे रूबरू है. हाँ शास्त्रीय संगीत की बात निकली तो बताते चलें कि तेरे नैना तलाश करे जिसे ये गीत राग छायानट पर आधारित है. नृत्यगीत में शास्त्रीय संगीत का बेजोड़ काम सचिन दा ने फ़िल्म गाइड में भी पेश किया था (पिया तोसे नैना लागे रे)

तेरे नैना तलाश करें जिसे

मन्ना डे ने गाने की शुरूआत के संक्षिप्त आलाप से ही अपनी क़ाबिलियत इस गीत में साबित कर दी है.मन्ना डे सुर में मुखर होतीं छोटी छोटी मुरकियाँ मोहक बन पड़ीं हैं. शुरूआती तबले की तिहाई मन मोह लेती है.हाँ ये बता देना भी मुनासिब होगा कि इस गीत में ताल वाद्य के रूप में तबला तरंग और मृदंगम का श्रेष्ठ प्रयोग हुआ है. तबला तरंग एक तरह से तबले पर बजने वाले पूरे सात स्वर हैं जो अपने आप में एक अलग वाद्य का आभास देते है.सरोद , सितार और वीणा को भी सचिन दा ने बहुत लाजवाब तरीक़े से समोया है इस बंदिश में.
गीत की दृष्टि से आपको लगेगा कि नायक को संबोधित करते हुए बात कही जा रही है लेकिन साथ ही इन शब्दो में जीवन दर्शन भी व्यक्त किया गया है. मजरूह साहब की शायरी का बेजोड़ नमूना है यह गीत और एक शायर की समर्थता को भी अभिव्यक्त करता हुआ सा. जो कहा गया है व्यक्त रूप में उसके अलावा भी कवित विद इन लाइंन्स कह जाए तो क्या बात है.

फ़िल्में यदि लोकप्रिय है तो उसमें बड़ा योगदान संगीत का है और सचिनदेव बर्मन जैसे संगीतकारों के हाथ में जब कमान हो तो वे साबित कर देते हैं वे लोक-संगीत,शास्त्रीय संगीत और पाश्चात्य संगीत की गहरी समझ रख कर काम करने वाले इंसान थे. ज़िन्दगी का यर्थाथ देखिये शाहू मोडक,राजेन्द्र कुमार,मजरूह सुल्तानपुरी,सचिनदेव बर्मन कोई अब इस दुनिया ए फ़ानी से रूख़सत हो चुके हैं.

अगर आपके संगीतप्रेमी मन को ये गीत छूता है तो निश्चित रूप से यह श्रोता-बिरादर होने के नाते आपकी सच्ची श्रध्दांजली है इन सर्वकालिक महान कलाकारों के प्रति.
चलने से पहले सुनिए संतूर पर इस गाने की धुन । हमें नहीं पता कि इसे किसने बजाया है ।
ये रहे इस गाने के बोल---
खोई खोई आंख है झुकी पलक है
जहां जहां देखा तुझे वहीं झलक है
तेरे नैना तलाश करे जिसे वो है तुझी में कहीं दीवाने
यहां दो रूप हैं हर एक के
यहां नज़रें उठाना ज़रा देख के
जब उसकी मुहब्‍बत‍ में गुम है तू
वही सूरत नज़र आएगी चार सूं
कौन क्‍या है....मन के सिवा ये कोई क्‍या जाने ।।
तेरे नैना ।।
ये जवान रात ले के तेरा नाम
कहे हाथ बढ़ा कोई हाथ थाम
काली अलका के बादल में बिजलियां
गोरी बांहों में चाहत की अगड़ाईयां
जो अदा है इशारा है प्‍यार का
ओ दीवाने तुझे चाहिए और क्‍या
पर रूक जा मन की सदा भी सुन दीवाने
तेरे नैना ।।

आप इस प्लेयर पर भी सुन सकते हैं ये नृत्य-गीत.


अगले हफ़्ते फ़िर मुलाक़ात होगी.....नमस्कार

Saturday, August 16, 2008

गायन,वादन और नृत्य की पूर्णता की तलाश को पूरी करती श्रोता-बिरादरी.

दो दिन तक उत्सवी आनंद से सराबोर रहे हैं आप सब. उम्मीद है बहुत मज़ा रहा होता इन पिछले दो दिनों में.अब सोमवार से फ़िर आपको अपने अपने काम की तैयारी में मसरूफ़ हो जाना है तो निश्चित ही अतिरिक्त उर्जा की ज़रूरत महसूस कर रहे होंगे आप. तो तैयार हो जाइये ...वादे के मुताबिक श्रोता-बिरादरी लेकर आ रही है अपनी नियमित रविवारीय प्रस्तुति।

चित्रपट संगीत ने सभी विधाओं को बख़ूबी निभाया है.एक से बढ़कर एक प्रतिभा-सम्पन गायकों ,वादको,अभिनेताओं,गीतकारों और संगीतकारों ने अपने हुनर से जगमगाया है. रविवार की सुबह आपसे मुख़ातिब होती प्रस्तुति एक विलक्षण प्रस्तुति है. संगीतकार के कम्पोज़िशन का कमाल देखिये...शायर ने मनोरंजन परोसते हुए कैसे ज़िन्दगी के फ़लसफ़े का संकेत भी है और देखिये कितने दमख़म से गाया गया है यह गीत अपने ज़माने के जानेमाने पार्श्वगायक ने. चूँकि यह एक परिपूर्ण नृत्य गीत है सो इसमें आपको बेहतरीन वाद्यवृंद भी सुनाई देगा.

मिलते हैं रविवार 17 अगस्त की सुबह

अब के बरस भेज भैया को बाबुल: श्रोता बिरादरी पर राखी का विकल गीत ।


चित्रपट संगीत की सबसे बड़ी ताक़त है उसका हर रंग, परिवेश, संबध और मनुष्य-व्यवहार से अपने आप को जोड़ लेना. फ़िल्मकार अपनी इस ताक़त का बड़ी मेहनत से इस्तेमाल करते आए हैं और हमने ये देखा है कि तीज त्योहार, तहज़ीब और संस्कारों को बड़ी ख़ूबसूरती से फ़िल्मों में अभिव्यक्त किया गया है. राखी, दीवाली, ईद, होली जैसे लोक-पर्व फ़िल्मों की शान रहे हैं. आज श्रोता बिरादरी पर चर्चा राखी प्रसंग को लेकर ।

याद कीजिये जब 1959 में बनी फिल्म 'छोटी बहन' का वह गीत 'भैया मेरे  राखी के बंधन को ना भुलाना'... यह गीत रहमान और नंदा पर फिल्माया गया था।  और इस गीत को आप कैसे भूल सकते हैं 1974 में बनी फिल्म 'रेशम की डोरी'  का गीत । जिसमें बहन बनी नायिका (फरीदा जलाल या कुमुद छंगाणी याद नहीं) अपने भाई धर्मेन्द्र की कलाई पर राखी बांधकर गा रही है, बहना ने भाई की कलाई पे प्यार बांधा है.. इस गीत को सुमन कल्याणपुर ने गाया था और शंकर जयकिशन ने इस गीत का संगीत दिया था।

इस तरह कई राखी गीत बने और प्रसिद्ध हुए पर श्रोता बिरादरी आज जिस गीत का जिक्र यहाँ करना चाहती है, पता नहीं क्यों जब भी राखी गीतों का जिक्र होता है उसे भुला दिया जाता है और ये गीत है सन 1963 में बनी फिल्म बंदिनी का........'अब के बरस भेज भैया को बाबुल..!'

ये गीत ऐसा है जो सीधे-सीधे राखी का गीत तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जिसमें एक बहन बड़ी भावुकता में सावन मास में अपने भाई , उसके साथ बीते समय का जज़्बाती चित्रण कर रही. और जैसा कि ऊपर उल्लेख किया..यहाँ भी पूरे परिवेश का एक भावपूर्ण चित्र उकेरा गया है. पूरब के लोक-संगीत की रंगत लिये इस गीत की कविता और संगीत कुछ ऐसे मनोयोग को लेकर रचे गए हैं कि किसी भी मज़हब को मानने वाली बहन की अभिव्यक्ति हो सकता यह गीत.

आशा भोंसले जो.....अहसास की गायिका हैं , इस गीत को अपने श्रेष्ठ गीतों में से एक मानती हैं. गीत के शब्द को किस धुन में गाया जाएगा यह तो संगीतकार बता सकता है लेकिन कविता के भाव को क्या अतिरिक्त स्पर्श चाहिये वह करिश्मा तो ऐन रेकॉर्डिंग में गायक या गायिका ही कर सकती है. वही करिश्मा जिसमें साँस और स्वर की जुबलबंदी होती है. सनद रहे ये करिश्मे कभी कभी भाग्य से नहीं होते इसे उस्तादों और गुरूजनों की सीख, रियाज़ और अपने काम के प्रति समर्पण से ही साधा जा सकता है..क्योंकि अंतत: गायक का गायन ही तो किसी गीत को कालजयी बनाने की पहली सीढ़ी होता है.आशा जी का ये गीत एक महान गायिका का दस्तावेज़ बन गया है.

एक बात अचानक ध्यान में आई कि  जिन गीतों का जिक्र हमने ऊपर किया वे सब स्व. शैलेन्द्रजी ने ही लिखे थे । हाँ तो बात चल रही थी गीत 'अब के बरस भेजो'  की । यह गीत आशा भोसले ने गाया है और इसका संगीत दिया है एस. डी. बर्मन यानि बर्मनदा ने । शुभा खोटे पर फिल्माये गये इस गीत में नायिका अपने पिता से शिकायत कर रही है कि अबके बरस भेजो भैया को बाबुल सावन में दीजो भिजाय रे.. आह, आशा जी ने कितने विकल स्वर में इसे गाया है । मानो इस गीत को गाते समय आशाजी सचमुच अपने पिता से शिकायत कर रही हों । कहते हैं कि जब आशाताई ने अपनी मरज़ी से शादी कर ली थी, और परिवार वालों से थोड़े दिनों के लिए दूर हो गई थीं तब उन्‍हें अपने इकलौते भाई हृदय नाथ की बहुत याद आती थी । और इस गाने की रिकॉर्डिंग में उन्‍होंने उन्‍होंने इन्‍हीं दिनों को याद किया था । उनका अपना निजी दर्द इसीलिए इस गाने में उतर आया
है ।

सबसे खास हैं इस गीत के अंतरे.. नायिका याद कर रही है अपने बचपन को, अपने गाँव को, और गाँव के उस सावन को जिसमें झूले पड़ते थे, और उन सब को याद करते ही उसकी आँखें छलक जाती है। देखिये नायिका क्या कह रही है ।
अम्बुआ तले फिर झूले पड़ेंगे
रिम झिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी तेरे आंगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आये रे

इन पंक्तियों को सुनते समय  हम सब की आँखो में गाँव, बचपन, झूले और सावन सब कुछ याद दिलवाने में आशाजी सफल रहती हैं। आगे देखिये गीत जब ज्यों ज्यों आगे बढ़ता है गंभीर होता जाता है। दूसरे अंतरे में नायिका अपने बाबुल से पूछ रही है, बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया छुड़ाई, बाबुल जी मैं तेरे नाजों की पाली फिर क्यों हुई मैं पराई? बीते रे जग कोई चिठिया ना पाती, ना कोई नैहर से आये रे...

जिन गानों में भावनाओं का उद्वेग होता है उनके संगीत की कलाबाजियों की ज़रूरत नहीं होती ।
इस गाने की वायलिन दिल को चीर डालती है । और आशा जी आवाज़ का कंपन आंखों को नम कर जाता है । आप पायेंगे कि गाने के ऑर्केस्‍ट्रा एकदम मद्धम और 'मिनिमम' है । और यही इस गीत की ताक़त है ।


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अब के बरस भेज  भैया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ
दीजो संदेशा भिजाय रे
अब के बरस..
अम्बुआ तले फिर झूले पड़ेंगी
रिम झिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी तेरे आंगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आये रे
अब के बरस...
बैरन जवानी ने छीने खिलोने
और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल थी मैं तेरे तेरे नाजों  की पाली
फिर क्यों  हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया ना पाती
ना कोई नैहर से आये रे
अब के बरस भेज बाबुल...

फिर से वही सवाल । आज की फिल्‍मों से राखी का त्‍यौहार ग़ायब क्‍यों हो गया है । चलिये छोडि़ए पर आपसे इतनी इल्तिजा तो कर ही सकते हैं कि आईये राखी को लेन-देन का त्‍यौहार ना बनाएं । राखी को प्रेम और विकलता का पर्व बनाएं ।

Friday, August 15, 2008

कल श्रोता बिरादरी बाबुल को भेज रही है एक दर्दीली सुर पाती.

जानकार उस आवाज़ को गायकी की आत्मा कहते हैं. वे सुरों की महारानी हैं . उम्र का कोई असर उनकी गायकी पर नहीं पड़ता. श्रोता-बिरादरी के रक्षाबंधन संस्करण में सुनिये कविता और संगीत के लिहाज़ से एक मार्मिक बंदिश. राखी की रूटीन गीतों से हट कर एक ऐसे गीत की पेशकश जिसे हिन्दी के एक समर्थ कवि ने लिखा और लोकधुनों के चितेरे ने अपने संगीत से सजाया.

वे बहनें जो इस बार किसी वजह इस सावन मास में अपने भाई तक नहीं पहुँच पाईं हैं उनके कोमल मन को समर्पित है श्रोता-बिरादरी की ये पेशकश.ये गीत सुनते वक़्त आप महसूस करेंगे कि हमारे फ़िल्म संगीत को रचने वाले गुणी कारीगरों जिनमें गायक,संगीतकार,गीतकार और तमाम वाद्यवृंद कलाकार शामिल हैं ; किस शिद्दत से तीन मिनट में एक पूरा नॉवेल रच देते हैं.इस बंदिश को सुनते वक़्त यह विचार भी मन में आता है कि ये गीत न होते तो फ़िल्मों के कथानक कितने रूखे होते.और ये गायक/गायिकाएं न होतीं तो न जाने कितनी तारिकाएं मौन रह जातीं.

एक बार फ़िर याद दिला दें रविवार 17 अगस्त को भी श्रोता-बिरादरी यानी आप-हम सब मिल ही रहे हैं ...तमाम बहन श्रोताओं को रक्षाबंधन की शुभकामनाएं.

झंकारो अग्निवीणा: ये गीत आपको याद दिलाएगा कि पन्द्रह अगस्त महज़ एक छुट्टी का दिन नहीं है !


आज़ाद हिन्द फ़ौज का ये तराना आपके हमारे जज़बातों को ललकारता है. स्वतंत्रता की लड़ाई में हमेशा संगीत ने एक अहम किरदार निभाया था.

आज़ादी के परवानों के लिये इस तरह के गीत तो हथियारों से ज़्यादा जोश जगाते आए हैं.सुभाष बाबू की आज़ाद हिन्द फ़ौज में तो बाक़यदा एक संगीत एकांश था जिसने बहुत लाजवाब क़ौमी तरानों को कम्पोज़ किया. इन गीतों का मोल आज की पीढ़ी तो लगभग जानती ही नहीं लेकिन तीस से साठ के दशक के बीच पैदा हुए लोग या अपवादस्वरूप उसके बाद ऐसे लोग जिनकी दिलचस्पी संगीत या राष्ट्र रहा हो वे ज़रूर इन गीतों का मर्म भाँप सकते हैं.मार्च पास्ट ट्यून पर कम्पोज़ किये गये अधिकांश गीत किसी देश के सपूत का पुरूषार्थ,स्वाभिमान और मातृभूमि प्रेम जगाने में हमेशा महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुए हैं.

शिवाजी महाराज के ज़माने में लिखे गए पवाड़े हों,या रामप्रसाद बिस्मिल,सोहनलाल द्विवेदी,सुभद्राकुमारी चौहान,चंद्रशेखर आज़ाद के लिखे गीत,इप्टा के कॉयर सांग्स हों , सुभाष बाबू की आज़ाद हिन्द फ़ौज के तराने या राष्ट्रीय फ़िल्मों के चित्रपत गीत, हमेशा इनमें छुपा जज़बाती भाव हमारी जन्मभूमि या क़ुरबानी दिलाने रंणबाँकुरों का पावन स्मरण करवाता आया है,जोश जगाता आया है.

श्रोता बिरादरी ने अपनी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए स्‍वतंत्रता दिवस पर ये गीत आपके लिए इसलिए प्रस्‍तुत किया क्‍योंकि ये बहुत ज्‍यादा बजता नहीं है । हो सकता है कि आपमें से कुछ लोग इसे पहली बार सुनें । आपको बता दें कि ये गीत 'नेताजी सुभाषचंद्र बोस' नामक उस फिल्‍म का है जो सन 1966 में आई थी । हेमेन गुप्‍ता की इस फिल्‍म में अभि भट्टाचार्य ने नेताजी की भूमिका निभाई थी । प्रदीप के गीत और संगीत सलिल चौधरी का । इस गाने में आपको मन्‍नाडे, सुबीर सेन, सबिता चौधरी और साथियों की आवाज़ें सुनाई देंगी । 'मार्च-पास्‍ट' की ट्यून पर बना ये गाना आपकी रग रग में जोश भर देगा । कोरस के बेहतरीन इस्‍तेमाल के लिए वैसे भी सलिल दा याद किये ही जाते हैं ।

स्वाधीनता दिवस की पावन बेला में श्रोता-बिरादरी की बिछात पर आपको सुनाई दे यह गीत आपकी संवेदनाओं को कितना छूएगा लेकिन इसमें छुपा राष्ट्रीयता का शाश्वत भाव अपनी अहमियत रखता है. ये दु:ख की बात है प्रगति के प्रवाह में हमारे लिये राष्ट्र प्रेम अंतिम प्राथमिकता रह गया है.हम इतने आत्मकेंद्रित हो चुके हैं हैं कि आज़ादी की जंग और उसके लिये दी गई प्राणों की आहूतियाँ हमें अब झकझोरती नहीं हैं.लेकिन इतना ध्यान रहे कि राष्ट्रप्रेम जब जब भी हमारे लिये एक औपचारिकता या ढोंग रहेगी हम और हमारी अगली नस्लें मुश्किलों का सामना करेगी.आइये स्वतंत्रता दिवस की इस पवित्र भोर में इस गीत को सुनते हुए हमारे मन में सुप्त हो चुकी भावनाओं को जागृत करें क्योंकि हम ज़ाहिर करें न करें ; हमे अपने भारत पर गर्व है.जय हिन्द !
शहीदों ने मातृभूमि के
लिये ख़ून दिया
देशवासियों ने लगभग
उसे भुला दिया
आज फ़िर माँ की
आँखों में आँसू हैं
आओ मिल कर कहें
मत रो माता.


झंकारो झंकारो झनन झन झन झंकारो अग्निवीणा  
आजाद होकर जियो बंधुओं ये जीना क्‍या जीना ।।
बज गया बिगुल दीवानों चलते चलो
मंजिल की तरफ मस्‍तानों चलते चलो
आजादी है अपना हक
जब तक ना मिले तब तक
आजादी के परवानों चलते चलो
झंकारो झंकारो ।।

ओ सिर कटवाने वालो आगे बढ़ो
फांसी पे लटकने वालो आगो बढ़ो
बंधन में है अपनी मां
ज़ंजीर में अपनी मां
ओ खून बहाने वालो आगे बढ़ो
झंकारो झंकारो ।।

तुम हो शेरों की टोली तुम ना डरो
चाहे लात चले या गोली तुम ना डरो
शमशीर हो देश की तुम
तकदीर हो देश की तुम
तुम इंक़लाब की बोली तुम ना डरो
झंकारो झंकारो ।।





Thursday, August 14, 2008

श्रोता बिरादरी – स्वतंत्रता दिवस – राखी और रविवारीय प्रस्तुति

आप सब को स्वाधीनता-दिवस की पूर्व संध्या पर शुभकामनाएँ.बधाइयाँ.

श्रोता-बिरादरी का सुरीला सिलसिला आपके प्रतिसाद से समृध्द होता जा रहा है; एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ीकरण का सोपान बनता जा रहा है.आप जैसे अनंत संगीतप्रेमियों के जुड़ाव का स्पंदन हम तक पहुँच रहा है ; हमें अभिभूत कर रहा है.

कल यानी पंद्रह अगस्त को एक विशेष संस्करण लेकर श्रोता-बिरादरी हाज़िर हो रही है. स्वाधीनता दिवस स्पेशल ...वाक़ई कई मामलों में स्पेशल है. आपको मातृभूमि के एक निर्विवाद महानायक का स्मरण करवा देने वाली प्रस्तुति है यह.

एक ख़ुशख़बर और आपके लिये ....शनिवार 16 अगस्त  को रक्षाबंधन का पावन पर्व है. तो उस दिन भी श्रोता बिरादरी कोशिश कर रही है कि एक विशेष गीत आप सुनें और भावनाओं के सागर में गोते लगाएँ.

आप सोच रहे होंगे कि लगातार दो दिन तक श्रोता बिरादरी की बिछात बिछी रहेगी तो क्या रविवार 17 अगस्त का दिन कोरा चला जाएगा.नहीं हुज़ूर ऐसा कैसे हो सकता है. इत्मीनान रखिये इस रविवार को भी श्रोता-बिरादरी आपसे मुख़ातिब होगी और आपस में मिल बैठ सुनेंगे एक और गीत.

आप नोट कर लीजिये और सभी संगीतप्रेमी मित्रों-परिजनों भी बाख़बर कर दीजिये.

फ़िर एक बार जश्ने आज़ादी मुबारक हो और सारे श्रोता बिरादर भाई/बहनों के लिये हम तीनों भाइयों यानी सागर,यूनुस और संजय की ओर से प्रेम के इस त्योहार के लिये अनेक शुभकामनाएँ...पूरे उल्लास से राखी मनाएँ.

जय हिन्द !
और हाँ आपसे अब एक ख़ास गुज़ारिश  : कल आने वाले सारे टेलिफ़ोन/मोबाइल कॉल्स पर वंदेमातरम ज़रूर कहें और अपने तमाम एस.एम.एस  में जय-हिन्द अवश्य लिखें

Sunday, August 10, 2008

बीता संगीत कुछ था ही ऐसा कि वाक़ई दिल मचल जाता था.

फ़र्स्ट लव फ़िल्म का ये गीत रेडियो सिलोन से रात दस बजे शुरू होने वाले पुराने गीतों के कार्यक्रम जब बजा करता था तो मध्यमवर्गीय हिन्दुस्तान के कितने ओटलों,छ्तों और पान की दुकानों पर सुरीलापन महक उठता था. शब्द की सरलता की ऊंची पेंग लेता ये गीत सुमन कल्‍याणपुर के उस युवा कंठ की परवाज़ था जब सुनने वालों का दीवानापन चेहरे पर बनावटी नहीं होता था. साठ के दौर तक के भारत का संगीतप्रेमी आर्थिक रूप से कमज़ोर था लेकिन उसके कान सुमन हेमाड़ी यानी सुमन कल्‍याणपुर के इन गीतों से उसे मन से रईस होने की एक प्यारी ख़ुशफ़हमी बनाए रखते थे.सीधी-सादी तबियत की हमारी घर की बहने – बेटियों के युवा मन में महक रहे ख़्वाबों को कितनी तसल्ली दी इन गीतों ने.


दत्ताराम जैसा बेजोड़ संगीतकार शंकर-जयकिशन जैसे जीनियस के साये में काम करता रहा. कितनी धुनों को दत्ताराम की ढोलक की थाप ने मालामाल किया यदि इसकी फ़ेहरिस्त बनाने बैठें तो शायद काफ़ी वक़्त लग जाए.इस गीत में भी देखिये दत्ताराम किस तबियत से ढोलक बजा गए हैं.शुरूआत में बीते हुए दिन के दर्द को वॉयलिन से टेर दी है इस संगीत सर्जक ने.इंटर्ल्यूड में एकॉर्डियन के छोटे छोटे पीस गीत के मार्दव में इज़ाफ़ा करते सुनाई दे रहे हैं .गोवा की पृष्ठभूमि वाले दत्ताराम जी से से एकॉर्डियने के सटीक इस्तेमाल की उम्मीद संगीत जगत करता ही था सो उन्होंने यहाँ साबित भी किया है.

शब्द की नफ़ासत पर श्रोता-बिरादरी हमेशा तवज्जो देती रही है ,कारण यह है कि गीत की लोकप्रियता में शब्द की जो भूमिका रही है उसे आप – संगीतप्रेमी तो समझें और रेखांकित करें.

गायकी के बारे में इतना ही कि आज पेश किये गए गीत जैसे कई गीतों का कौमार्य सुमन कल्‍याणपुर की आवाज़ ने बढ़ाया है. कमाल की बात ये है कि सुमन कल्‍याणपुर की आवाज़ लता जी से इतनी मेल खाती है कि ज़माना इसे लता मंगेशकर की ही आवाज़ समझ लेता है । सुमन जी के कई कई गानों को सुनने वाले बेख़बरी में लता जी का गाना मानते रहते हैं । शायद कभी कोई ऐसा ज़माना आए जब सुमन कल्‍याणपुर की गायकी का सही मूल्‍यांकन हो सके । तब शायद हमें कोई ऐसा सूत्र मिल जाए जब हम इन दोनों आवाजों का सही सही फर्क कर पाएं । इतनी गहरी समानता हो तो भला कोई संशय में क्‍यों ना पड़े । आईये इस गाने की इबारत पढ़ी जाए ।

बीते हुए दिन कुछ ऐसे ही हैं
याद आते ही दिल मचल जाए ।।
अंगड़ाई मुझे यूं आई
टूट गया हाय मेरा अंग-अंग रे
बेदर्दी अब तो आजा
आ ही गया फूलों पे भी मस्‍त रंग रे
बीते हुए दिन कुछ ।।
पंछी रे तू क्‍या जाने
कैसी लगी काहे लगी दिल की लगी रे
तन्‍हाई अब नहीं भाए
आज मेरे दिल में नई प्रीत जगी रे
बीते हुए दिन कुछ ।। 
गुलशन बावरा ने ये गीत लिखा है । गुलशन बावरा भी हिंदी फिल्‍म संसार के ऐसे गीतकार रहे हैं जिनका सही मूल्‍यांकन नहीं हो सका है । गुलशन का ज्‍यादातर काम राहुल देव बर्मन के साथ रहा है । उनका असली नाम था गुलशन मेहता । 'मेरे देश की धरती सोना उगले' सुनते वक्‍त कोई नहीं याद करता कि इसे लिखा किसने । मित्रो इसे गुलशन बावरा ने लिखा । गुलशन ने 'यारी है ईमान मेरा' जैसा गाना भी लिखा । उन्‍होंने इस गाने में बड़ी सादगी से काम लिया है । गाना क्‍या है दिल की सीधी सादी सी बात है । पर दत्‍ताराम की धुन और सुमन की गायकी ने इसमें रंग भर दिया है । तभी तो इतने बरस बाद आज भी हम इसे गुनगुनाते हैं ।



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Saturday, August 9, 2008

अखण्ड किशोर स्वर में डूबी श्रोता-बिरादरी की रविवासरीय पेशकश

          योगायोग ही कहिये कि पिछले रविवार और सोमवार लगातार दो दिन तक आपसे सुरीली मुलाक़ात होती रही. प्रतिक्रियाएँ भी मिलीं,ई-मेल्स,समस और आपके फ़ोन कॉल्स भी. मन भर आता है आपके प्रतिसाद से और इरादा पक्का बनता है कि संगीत के सुनहरे दौर की ये बातें आपके कोमल मन को छू रही हैं.
          बात करते करते फ़िर आ गया रविवार या कहें श्रोता-बिरादरीवार.सुबह के नौ बजेंगे और १० अगस्त को फ़िर एक बार मिल बैठेंगे हम एक ऐसे संगीतकार की रचना लेकर जो मूलत: एक ख्यात संगीतकार जोड़ी का सहयोगी रहा. बेताज बादशाह रहा तालवाद्यों का लेकिन जब भी ख़ुद बतौर म्युज़िक डायरेक्टर काम किया तो बता दिया वह किस पाये का कलाकार है.गीत के क्या कहने , सुनते ही लगे कि ये तो मेरे मन की बात है और गायकी ...माशाअल्लाह देश की इस सुर महारानी का स्वर तो जैसे  भगवान ने कुछ ऐसा गढ़ा है कि उसकी उम्र ही नहीं बढ़ती ...सुनते सुनते एक पीढ़ी बूढ़ी हो गई लेकिन वह है एक अखण्ड कैशोर्य  स्वर.....समझ तो गए हैं आप ...बिलकुल ठीक ...भल आपका अंदाज़ ग़लत कैसे हो सकता है  ....बस आपकी इसी अदा पर तो क़ुरबान है हम तीनों यानी यूनुस,सागर और संजय का दिल.आप से ही है श्रोता-बिरादरी के सुरीलेपन की महफ़िल रोशन.आदाब.

Monday, August 4, 2008

किशोर कुमार अपने जन्‍मदिन पर कुछ कह रहे हैं ।।

 
किशोर कुमार 1929-1987 
सन 87 से अब तक कितने बरस बीत गए,‍ गिनती करना मुश्किल नहीं है । लेकिन ये बहस दुनिया में लगातार चलती रही कि किशोर बेहतर थे या रफ़ी या मुकेश । दुनिया भर में किशोर कुमार के नग़मे भी बजते रहे । और इस बीच ना जाने कितनी पीढियां किशोरावस्‍था से जवानी और जवानी से अधेड़ होने की तरफ़ बढ़ चलीं । लेकिन श्रोता-बिरादरी मानती है कि जो 'किशोर' के गाने सुनता है वो किशोरावस्‍था में ही है । 
किशोर के जन्‍मदिन पर हम कोई भी खिलंदड़ गाना चुन सकते थे और फिर किशोर दा की शान में क़सीदे काढ़ सकते थे । लेकिन श्रोता-बिरादरी संस्‍कारों पर ज़ोर देती है और लीक से हटकर काम करने पर विश्‍वास रखती है । तो चलिए आज एक ऐसा गाना सुनें जिसमें अपनी बात कहने की हिचक है । जिसमें प्‍यार की तरंगों के बीच दिल में उठता संकोच का ज्‍वार है । जिसमें बेक़रारी के साथ हल्‍का-सा डर है । उफ़ ऐसे गाने आज क्‍यों नहीं बनते । 
इस गाने को सुनते हुए सोचिए कि आज का नायक तुषार कपूर परदे पर चिल्‍ला चिल्‍लाकर कह रहा है-'मुझे कुछ कहना है' । और यहां परदे पर किशोर बड़े संकोच से वहीदा रहमान से अपने मन की बात कह रहे हैं । कितना विरोधाभास है दोनों स्थितियों में । इससे आपको अंदाज़ा लग जायेगा कि ज़माना कितना बदल गया है । 
आज मुझे कुछ कहना है ! इतने से भी काफ़ी कुछ कह दिया है इस गीत ने.
और हेमंत दा की दृष्टि देखिये कि जहाँ साहिर कहने में समर्थ हैं वहाँ एक संगीतकार ने धुन की एक परिपक्व ज़मीन देने के अलावा कुछ नहीं कह है.जहाँ शब्द और गायकी सब कुछ कह रही हो वहाँ साज़ की ज़रूरत नहीं है नहीं है.और ऐसा कर के संगीतकार हेमंतकुमार काफ़ी कुछ कह गए हैं.श्रोता-बिरादरी के आपके मेज़बान यानी हम तीनो इस बात को रेखांकित करना चाहेंगे कि किशोर दा में बसे संजीदा गायक को ज़माने ने गंभीरता से नहीं लिया. कई गीत ऐसे हैं जिनमें से आज का गीत विशिष्ट है जहाँ आप शिद्दत से महसूस करते हैं कि किशोर कुमार एक परिपूर्ण गायक थे और हर रंग , सिचुएशन और स्टाइल का गीत उनके स्वर को फ़बता था. वे एक भरी-पूरी म्युज़िकल रूह थे और जिस तरह से उन्होंने संगीत जगत में आमद ली उससे सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है कि बिना किसी उस्ताद या औपचारिक तालीम के परिदृश्‍य पर छा जाने वाला ये खिलंदड़ गायक एक एक कुदरती करिश्मा था.

बहरहाल आपको बता दें कि ये गाना किशोर कुमार और सुधा मल्‍होत्रा ने गाया है और साहिर ने लिखा है । इस गाने के संगीतकार हैं हेमंत कुमार । विलक्षण है ये गीत । पहले रचना पक्ष की बात कर लें । तो साहिर ने पूरा समां बांधा है--कश्‍ती का खामोश सफर, शाम, तन्‍हाई, लहरों की तन्‍हाई.....लेकिन दिल की बात ज़बां पर आ नहीं रही है । इस गाने में ग़ज़ब की सूक्ष्‍म नाटकीयता है । अगर आप पहली बार गाना सुनें तो लगेगा कि नायक अब अपनी बात कहेगा, अब कहेगा...शायद आखिर में जाकर कह ही देगा । पर किशोर आखिरी पंक्ति में कहते हैं.........छोड़ो अब तो संग ही रहना है । ना कहते हुए भी कितना कुछ कह गए हैं साहिर । गाने ऐसे लिखे जाते हैं ।

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कश्‍ती का ख़ामोश सफर है शाम भी है तन्‍हाई भी
दूर किनारे पर बजती है लहरों की शहनाई भी
आज मुझे कुछ कहना है ।।
लेकिन ये शरमीली निगाहें मुझको इजाज़त दें तो कहूं
खुद मेरी बेताब उमंगें थोड़ी फुरसत दें तो कहूं
आज मुझे कुछ कहना है ।।
जो कुछ तुमको कहना है वो मेरे ही दिल की बात ना हो
जो है मेरे ख्‍वाबों की मंजिल उस मंजिल की बात हो ।
कहते हुए डर सा लगता है कहकर बात ना खो बैठूं
ये जो ज़रा-सा साथ मिला है ये भी साथ ना खो बैठूं ।
कब से तुम्‍हारे रस्‍ते में मैं फूल बिठाए बैठी हूं ।
कह भी चुको जो कहना है मैं आस लगाए बैठी हूं ।
दिल ने दिल की बात समझ ली अब मुझे क्‍या कहना है
आज नहीं तो कल कह लेंगे अब तो साथ ही रहना है ।
कह भी चुको, कह भी चुको जो कहना है
छोड़ो अब क्‍या कहना है ।।

समय तो बीतता ही जाता है और हम सब अपनी व्यस्तताओं को बढ़ाते ही जाते हैं
लेकिन ये गुज़रे ज़माने का संगीत या कहिये आज मुझे कुछ कहना है जैसे गीत ही
हैं जो समय की गति को थामें हुए हैं . हमें स्मरण दिलाते हुए से कि हम बीत रहे
हैं लेकिन संगीत हमें कुछ पलों को बीतने से रोक रहा है. दिन रात तेज़ और तेज़
तत्काल और तत्काल की तरफ़ भाग रहे समय में ये गीत हमें साइलेंट मैसेज भी दे
रहे हैं कि इंसान नहीं रहता उसका हुनर उसकी क़ाबिलियत के चर्च हमेशा बने रहते हैं
किशोर दा भी करोड़ों संगीतप्रेमियों के बीच बने रहे हैं ; बने रहेंगे.सोच,संगीत,समझ
बदलेगी लेकिन किशोर कुमार जैसा गायक हमेंशा हमारी स्मृतियों में बना रहेगा.

किशोर दा को कोई अच्छी बंदिश पसंद आ जाए तो.... क्या बात है कहने के बजाय
उसको एब्रीवेट करके कहते थे...के.बी.एच....क्या ये गीत सुनने के बाद आप नहीं
के.बी.एच .रमाकु रशोकि (किशोर दा इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज में अपने मित्रों को
अपना नाम उल्टा कर के ही बताते थे और हाँ सहगल साहब के कई गाने भी उल्टे गाते
थे)......हेप्पी बर्थ डे टू यू किशोर दा !

Sunday, August 3, 2008

गरजत बरसत सावन आयो रे ; लायो न संग में हमरे बिछरे बलमवा.


गरजत बरसत सावन आयो रे
लायो न संग में
हमरे बिछड़े बलमवा
सखी क्या करूं हाय

रिम – झिम, रिम - झिम मेहा बरसे
तरपे जियरवा मीन समान
पर गयी फीकी लाल चुनरिया,
पिया नहीं आये...
गरजत बरसत आयो रे...

पल पल छिन छिन पवन झकोरे
लागे तन पर तीर समान,
नैनं जल सो गीली चदरिया,
अगन लगाये,
गरजत बरसत सावन आयो रे...

इस गीत की पंक्तियों को पढ़ें तो लगता है अमीर ख़ुसरो की लिखीं हैं लेकिन ये तो हमारे साहिर लुधियानवी साहब का कारनामा है हुज़ूर. फ़िल्म बरसात की रात की एक बेहतरीन म्युज़िक फ़िल्म थी (इस विषय पर ज़्यादा नहीं वरना एक पूरी पोस्ट इसी फ़िल्म के संगीत पर लिखी जा सकती है)और साहिर-रोशन जुगलबंदी का नायाब नमूना. पूरब के अंग को साहिर साहब ने अपने क़लम से सजा कर इस मौसमी बंदिश क्या ख़ूब सँवारा है. ये पूरा गीत उपमाओं का गीत है.जियरवा मीन यानी मछली जैसा तड़प रहा है,पवन झकोरे तन पर तीर समान लग रहे हैं गोया साहिर साहब ने एक पूरा समाँ रच दिया है बिरहन की फ़िलिंग्स और बरसते सावन का.एक लम्बे इंतज़ार के लिये साहिर ने क्या बढ़िया मुहावरा रच दिया है कि प्रियतम की इतनी लम्बी प्रतीक्षा हो गई है कि लाल चूनर मध्दिम पड़ गई है.सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे जैसे गीत में जो छिछोरापन है उसके सामने इस मौसमी रचना में नैनं जल सो गीली चदरिया , अगन लगाए कैसी गरिमा से लिखा गया है...इस लिहाज़ से ये कहना बेमानी न होगा कि गुज़रे ज़माने के गीत भाषा का लहजा और संस्कार भी तो रचते थे.

रोशन साहब जो बाक़ायदा शास्त्रीय संगीत की तालीम लेकर फ़िल्म इंडस्ट्री में आए थे मल्हार अंग की इस रचना में दो स्वरों (सुमन कल्याणपुर और कमल बारोट ) से क्या ख़ूबसूरत गवा गए हैं . कमलजी की आवाज़ में एक प्यारा सा नैज़ल है जो ऐसा आभास देता है जैसे कोई अभ्यासी गायिका नहीं हमारे घर की बहन बेटी झूला-गीत गा रही हैं.और सुमन ताई की लहरदार आवाज़ में मुरकियाँ इस बंदिश की रौनक़ बढ़ा रही है. रोशन साहब ने इस गीत में कोई आलाप देने के बजाय सरोद और सारंगी के एक प्री-ल्यूड से गीत को आमद दी है. इस गीत में सरोद बार बार बजा है और बड़ा सुरीला बजा है . ये सरोद पीसेज़ बजाये हैं ज़रीन दारूवाला ने और सांरगी के छोटी छोटी बानगियाँ पं.रामनारायणजी के गज (जिससे सारंगी बजाई जाती है) से ऐसी बजीं है जैसे घने बादल में बिजली चमक रही हो..तबले और जलतरंग पर एक ख़ूबसूरत शुरूआत रची गई है जिस पर उभरता दोनो गायिकाओं का मीठा स्वर छा गया है.तीन मिनट के इस खेल में रोशन साहब ने साबित कर दिया है कि इस तरह से भी क्लासिकल मौसीक़ी की ख़िदमत की जा सकती है.

फिल्‍म 'मल्‍हार' में भी इसी तरह का एक गीत था बोल थे 'गरजत बरसत भीजत आईलो' । अपनी रचना और धुन में ये गीत भी कम नहीं है । कमाल की बात ये है कि उत्‍तर के लोकगीत और शास्‍त्रीय रचनाओं से प्रेरित होकर दो सुंदर गीत तैयार हुए हैं । वो भी एकदम एक जैसे । पी. एल. संतोषी की फिल्‍म 'बरसात की रात' आज से अड़तालीस साल पहले आई थी । क्‍या आपने इस बात पर विचार किया कि जब बारिश आती है तो हमारे होठों पर चालीस पचास साल पहले के गीत ही क्‍यों सजते हैं । क्‍या इसका मतलब ये समझा जाये कि पिछले लगभग तीस बरस बारिश के अनमोल गीतों की दृष्टि से एकदम वीरान सुनसान बीत गए । बदलते दौर के साथ बदलती प्राथमिकताओं का संकेत है ये ।

'श्रोता-बिरादारी' पर हम गॉसिप नहीं करते । पर फिर भी एक अहम मुद्दे का खुलासा आपके सामने कर रहे हैं । फिल्‍म-संगीत की दुनिया के बहुत ही वरिष्‍ठ और भरोसेमंद सूत्रों के हवाले से हमारी जानकारी में ये बात आई है कि कई गीत जो साहिर लुधियानवी के नाम हैं, दरअसल उन्‍हें जांनिसार अख्‍तर ने लिखा है । और ये गीत उनमें से एक गिना जाता है । हालांकि इन बातों की पक्‍के तौर पर पुष्टि कभी नहीं की जा सकती । पर कहते हैं कि जांनिसार बेहद मनमौजी थे और साहिर बहुत बिज़ी । इसलिए बिज़ी शायर ने मनमौजी शायर की मुंबई में डटे रहने में 'मदद' की थी । चलिये छोडि़ये इन बातों को और सावन के इस गीत को झूला बनाकर ऊंची ऊंची पींगें लीजिये ।

इस गाने को हमने तीन रूपों में चढ़ाया है ।










श्रोता‍ बिरादरी की अगली पेशकश कल होगी । कल किशोर दा का जन्‍मदिन है ।

Saturday, August 2, 2008

लगातार दो दिनों तक बने रहियेगा...श्रोता – बिरादरी के साथ....

समय पलक झपकते ही बीत जाता है. कहते हैं समय के पँख होते हैं;
पाँव नहीं. पिछले हफ़्ते श्रोता-बिरादरी को दो बार मौक़ा मिला आपसे बतियाने का.
31 जुलाई को रफ़ी साहब की बरसी पर जारी गीत पर मिले प्रतिसाद के
लिये आभार . आइये एक बार फ़िर एक नये गीत को याद करें;सुनें;गुनें
और हाँ ये गीत है ही ऐसा कि साथ में गुनगुनाएँ भी.
मल्हार के रंग में भीगी ये बंदिश आपके मन के आनंद को रोशन करेगी
इसका पूरा यक़ीन है हमें.

रविवार की सुबह नौ बजे के अनक़रीब श्रोता-बिरादरी की सुरीली बिछात आपकी मुंतज़िर रहती है. इस गीत को सुनने के बाद हमें फिर ये मानना पड़ता है कि फ़िल्म संगीत के बेजोड़ सृजनधर्मियों ने जो काम किया है वह कितना लाजवाब है. चित्रपट विधा में समय की जो सीमा है उसमें रहते हुए ,शास्त्रीय संगीत का मान बढ़ाते हुए और सबसे महत्वपूर्ण ...कविता की गरिमा पर क़ायम रहते हुई कैसे कैसे नायाब
कलेवर रचे हैं हमारे गुणी गीतकारों,गायकों,और संगीतकारों ने.गीत आपका सुना हुआ और सराहा हुआ है लेकिन इस मौसम की रंगत में इज़ाफ़ा करता हुआ ज़रा ज़्यादा ही सुरीला सुनाई देता है.

सुनियेगा ज़रूर....कल सुबह यानी 3 अगस्त को ये ख़ास गीत.

और हाँ आपको एक ख़ुशखबर देना तो भूल ही गये....4 अगस्त को फ़िर मिल रहे हैं रमाकु रशोकि का जन्मदिन मनाना है न हमें – आपको।
तो लगातार दो दिन तक श्रोता-बिरादरी के साथ बने रहियेगा.....ये आप ही की तो महफ़िल है जनाब.

 
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