Friday, September 23, 2011

ग़ालिब की ग़ज़ल और एक मार्मिक क़िस्सा !

पं.ह्रदयनाथ मंगेशकर और विदूषी लता मंगेशकर एकदूसरे के लिय बहुत आदर भाव रखते हैं.यूँ पण्डितजी अपनी दीदी से छोटे हैं लेकिन लताजी सिर्फ़ उम्र में बड़ी नहीं; जीवन व्यवहार में भी बड़ी हैं. स्टुडियो के भीतर छोटा भाई "बाळ" पण्डितजी हो जाते हैं. ज़ाहिर है एक संगीतकार का पाया गायक से ऊँचा होता है; होना भी चाहिये.

श्रोता-बिरादरी मौक़ा-बे-मौक़ा इस बात को स्थापित करने का प्रयास कर रही है कि चित्रपट संगीत विधा में पहला स्थान संगीतकार का है.गीतकार भी बाद में आता है क्योंकि गीतकार को तो निर्माता/निर्देशक और ख़ासतौर पर संगीतकार एक बना-बनाया नक्शा देते हैं कि उसे किस पट्टी में लिखना है. लेकिन संगीतकार तो धुन बनाते वक़्त वही कारनामा करता है जिसे आसमान में से तारे तोड़ कर लाना कहते हैं.वह शून्य में धुर खोजता है. उसके दिल में समाई बेचैनी का ही तक़ाज़ा है कि वह कुछ ऐसा रच जाता है जो सालों-साल ज़िन्दा रहता है.

आपने कई बार महसूस किया होगा कि आप शब्द भूल जाते हैं लेकिन धुन नहीं. आ लौट के आजा मेरे मीत याद न भी आए तो आप ल ल ला ला ल ल्ला ल ल्ला ला...तुझे मेरे मीत बुलाते हैं...ऐसा गुनगुना ही लेते हो....ये ल ल्ला ल ल्ला क्या है...यह है वह धुन जिसे सिरजने में संगीतकार ख़ून को पानी कर देता है. बहरहाल बात पं.ह्रदयनाथजी की हो रही है. लता स्वर उत्सव में ज़िक्र कर चुके हैं कि सज्जाद,अनिल विश्वास और ह्रदयनाथजी लता की गीत यात्रा के महत्वपूर्ण संगीतकार हैं और स्वर-कोकिला ने इनकी रचनाओं को अतिरिक्त एहतियात से गाया है.

ह्रदयनाथ मंगेशकर तान सम्राट उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब के गंडाबंद शागिर्द हैं और मराठी चित्रपट और भावगीतों में बतौर गायक और संगीतकार उनकी ख़ास पहचान है. मालूम हो कि लता मंगेशकर के दो अत्यंत लोकप्रिय प्रायवेट एलबम चाला वाही देस (मीरा) और ग़ालिब ह्रदयनाथजी द्वारा ही संगीतबध्द हैं.

“लता हमेशा डूबकर गाती है.एक – एक शब्द से वे अपना माँस और साँस मिलातीं हैं.आगे जब वे गायन में समा जातीं हैं और आलाप और ताने इसतरह फ़ूटने लगते हैं जैसे तुलसी के बिरवा में फूल फूटें या नींद में बच्चा मुस्कुराए.यह हमारा सामूहिक पुण्य ही है कि भारतवर्ष को लता मिलीं-अजातशत्रु


लता स्वर उत्सव को एकरसता से बाहर निकालने के लिये आज लेकर आए हैं मिर्ज़ा ग़ालिब का क़लाम जो ह्रदयनाथ-लता सृजन का अदभुत दस्तावेज़ है. इस ग़ैर फ़िल्मी रचना को सुनें तो महसूस करें कि टीप के तबले और बिजली सी चमकती सारंगी ने इस ग़ज़ल के शबाब को क्या ग़ज़ब की दमक दी है. दर्दे मिन्नत कशे दवा न हुआ,कोई उम्मीद बर नहीं आती,कभी नेकी भी उसके ,फ़िर मुझे दीदा-ए-तर याद आया और आज सुनवाई जा रही ग़ज़ल रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गये. लता का स्वर किस लपट के साथ सारंगी के आलाप पर छा गया है.
छोटी छोटी मुरकियों से लताजी क्या ख़ूबी से इस ग़ज़ल को सजा गईं हैं. अंतरे की पहली पंक्ति (यथा: कहता है कौन नालाए बुलबुल को बे-असर)के आख़िरी लफ़्ज़ को ह्रदयनाथजी ने लताबाई से जिस तरह गवाया है वह इस बात की तसदीक करता है कि दोनो भाई बहन की क्लासिकल तालीम कितनी पक्की है.
ह्रदयनाथजी के संगीत को सुनते हुए है एक सत्य और जान लें कि उनका संगीत कभी भी ख़ालिसपन का खूँटा नहीं छोड़ता. दूनिया जहान हर तरह का समझौता मुकमिन है लेकिन ह्रदयनाथ के संगीत में नहीं.लता-ह्रदयनाथ बेहद स्वाध्यायी लोग हैं.किसी भी काम को करते समय होमवर्क पहले करते हैं और यही वजह है कि पण्डितजी के निर्देशन में ज्ञानेश्वरी गाई जा रही हो,मीरा या ग़ालिब;आप हमेशा एक रूहानी लोक की सैर से लौटती हैं.
आख़िर में एक क़िस्सा:

दीनानाथजी के जाने के बाद बैलगाड़ी से अपनी माँ के साथ लताजी के भाई बहन मुम्बई पहुँचे हैं.लम्बा सफ़र है.रास्ते में कुछ खाया नहीं.सभी की उम्र दस से कम है,ह्रदयनाथजी की भी.दोपहर मुम्बई पहुँचना हुआ है. एक रिश्तेदार के घर आसरा लेने पहुँचे हैं. पता मालूम नहीं कि लता कहाँ रहती है,काम करने कहाँ जाती है.रिश्तेदार अपनी नौकरी पर निकल गया है. दो दिन से भूखे हैं सभी और सामने आई है एक गिलास में पाँच लोगों के लिये मह़ज़ चाय.लताजी तक परिवार के मुम्बई आने की और रिश्तेदार के घर पहुँचने की ख़बर पहुँची है. वे एक बड़ी सी छबड़ी में वड़ा पाव,चाट पकौड़ियाँ और कुछ और व्यंजन लेकर रिश्तेदार के घर पहुँचीं हैं.व्यंजनों की ख़ुशबू और दो दिन की भूख. अपने प्यारे बाळ (ह्रदयनाथ) के हाथ एक वड़ा पाव दिया है. आगे की बात ह्रदयनाथजी से सुनिये “मैंने वड़ा-पाव हाथ में लिया और दीदी की ओर श्रध्दा से देख रहा हूँ.बहुत सारे प्रश्न हैं,तुम कहाँ थीं अब तक,तुम कितनी अच्छी हो हमारे लिये खाना लाई हो....वग़ैरह वग़ैरह..आधा ही खा पाया हूँ उस वड़ा-पाव और पेट भर गया..... उसके बाद एक से बढिया व्यंजन खाए हैं,शहाना रेस्टॉरेंट्स में गया हूँ.लेकिन सच कहूँ..दीदी के उस आधे वड़ा पाव से जो तृप्ति मिली थी वैसी तो कभी मिली ही नहीं!
  प्रायवेट एलबम:ग़ालिब
संगीतकार:ह्रदयनाथ मंगेशकर
रचना: मिर्ज़ा गालिब مرزا اسد اللہ

(अजातशत्रुजी का वक्तव्य लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय के प्रकाशन बाबा तेरी सोन चिरैया से साभार)

0 टिप्पणियाँ:

 
template by : uniQue  |    Template modified by : सागर नाहर   |    Header Image by : संजय पटेल