श्रोता बिरादरी शुरू कर रही है भारतरत्न लता मंगेशकर के गीतों से सजा स्वर उत्सव...28 सितम्बर तक रोज़ सुनिये एक बेजोड़ लता-गीत.मित्रों के साथ भी इस उत्सव को साझा कीजिये
28 सितम्बर आ ही गई. कैसा बेहतरीन संयोग है इस बरस की लताजी के जन्मदिन के आसपास ही रमज़ान महीना विदाई की ओर है और नवरात्र महापर्व की धूम शुरू होने वाला है. स्वयं लताजी भी तो सर्वधर्म समभाव की शानदार मिसाल हैं.यदि उन्होंने गाया है मुझे जाना है मैया के द्वार (एलबम:जगराता) तो बेकस पे करम कीजिये सरकारे मदीना (फ़िल्म:मुग़ले आज़म) जैसे भावभीने प्रार्थना गीतों को भी अपनी आवाज़ देकर निहाल किया है.
........तो सबसे पहले हम सब की सबसे सुरीली दीदी को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई;टीम श्रोता बिरादरी और उसके ढेरों पाठक/श्रोता मित्रों की ओर से.जुग जुग जियें दुनिया का यह सबसे सुरीला स्वर.
बहरहाल आज समापन की बेला है स्वर उत्सव की. बीते पन्द्रह दिनों में हम तीनों ने लताजी की स्वर-यात्रा को सुना,गुना और लिखा. आपने पसंद किया नवाज़िश आपकी. हाँ हमने अपने तईं इस तरह के पहले अनुष्ठान में काफ़ी कुछ सीखा है और वादा करते हैं कि श्रोता-बिरादरी संगीत के इस सफ़र को और खूबसूरत बनाने की कोशिश करती रहेगी.आपका समर्थन,सहयोग और प्रतिसाद सर-आँखों पर. आइये अब स्वर उत्सव की समापन प्रविष्टि के बारे में बात कर लें.हमारी कोशिश थी कि हम तीनों की पसंद के संगीतकारों की बानगियाँ आप तक पहुँचे.चौदह संगीतकारों को कवर कर लेने के बाद ये ख़याल आया कि मौक़ा भी और दस्तूर भी.यानी समापन क़िस्त भी है और लता दीदी का जन्मदिवस भी सो आज एक से ज़्यादा संगीतकार श्रोता-बिरादरी की बिछात तशरीफ़ लाएं..आयडिया अच्छा है न ? तो हुज़ूर तशरीफ़ ला रहे हैं देश के जाने माने संगीतकार और उनके अप्रतिम गीत.... अपने समय के सबसे समर्थ और रचनाधर्मी संगीतकार. एक से बढ़कर एक. चित्रपट संगीत के आन और शान को बढ़ाने के साथ इन सब ने नयेपन को ईजाद किया.ज़िन्दगी की तमाम ज़िल्लतों से बचने के लिये यदि इंसान सुरों के साये में आता है तो इसकी बड़ी वजह हमारे संगीतकारों के करिश्माई कारनामें हैं.हमें अफ़सोस है कि हम इन मौसीक़ारों के बारे में आज तफ़सील से नही लिख पा रहे हैं इसका मतलब ये न लीजे कि ये हमारे लिये दीगर संगीतकारों से कमतर हैं. बस समय और स्थान की मर्यादा के कारण ऐसा करना संभव नहीं हो पा रहा है.आगे कभी इस कमी को भी पूरा करेंगे या इन संगीतकारों के दूसरे गीत अपनी नियमित रविवारीय पोस्ट में शरीक़ करेंगे.
सचिन देव बर्मन - साजन बिन नीन्द ना आवे- मुनीमजी
चित्रगुप्त- छुपाकर मेरी आँखों को: भाभी
वी डी वर्मन- बदनाम ना हो जाऊं ए आस्मां: चार पैसे
पं. हृदयनाथ मंगेशकर- निस दिन बरसत नैन हमारे
एक बार फ़िर स्वर उत्सव में साथ निभाने के लिये आपके साथी यूनुस ख़ान,सागर नाहर और संजय पटेल आपके प्रति शुक्रिया अदा करते हैं और चलते चलते ख्यात लेखक श्री अजातशत्रु द्वारा रचित और लता मंगेशकर पर एकाग्र 80 अनसुने गीतों के ग्रंथ –बाबा तेरी सोनचिरैया- से संकलित शब्द आप तक पहुँचा रहे हैं.ये संगीत संचयन शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है जिसकी सूचना श्रोता-बिरादरी पर भी दी जाएगा...लता मंगेशकर के बारे में अनूठे शब्द-शिल्पी अजातशत्रुजी क्या कहते हैं.....
लता की आवाज़ में से भाव पैदा होते जाना,जैसे पौधे में से फूल खिलते हैं.बड़ी बात यह है कि लता कभी भी गाती हुई प्रतीत नहीं होती.ऐसा लगता है जैसे गाना उनके भीतर से उठता जाता है,जैसे नर्तकी के भीतर से नृत्य उठता है.गायन में से हवा जैसी सहजता या स्वयं गायन का ख़ुद को गा पड़ना यही लता मंगेशकर है.यह कहना पर्याप्त नहीं कि स्वर की माधुरी लता के गले में है.जी नही,आवाज़ के माधुर्य के साथ गायन में मेलड़ी कहाँ पैदा करना,कैसे करना,यह लता को स्वयं अपनी सूझ से मिलता है.लता गीत को बातचीत की सहजता से गा देती है.लता श्रोताओं की ज़िन्दगी में सुगंध की ऐसी एक किरण है जो हमें ज़िन्दा रखती है.
लता हर जगह पारस ही पारस है.
हमारे साथी यूनुस खान ने पिछले साल लताजी के जन्म दिन पर एक पोस्ट लिखी थी लता दीदी के जन्मदिन पर उनके कंसर्ट के कुछ वीडियोज़
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चित्र यूनुस खान और लावण्या शाह जी के ब्लॉग से साभार
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मित्रों, श्रोता बिरादरी का लता/८० स्वर उत्सव अपने आखिरी पड़ाव पर पहुंच रहा है। आज चौहदवीं कड़ी में हम आपको एक ऐसे संगीतकार का गीत सुना रहे हैं जो मूल रूप से फिल्म-संगीतकार नहीं हैं । बल्कि विख्यात सितार वादक हैं । जी हाँ आज का गीत संगीतबद्ध किया है सुप्रसिद्ध सितारवादक भारत रत्न पण्डित रविशंकर ने ।
पण्डित रविशंकर ने मात्र तीन फिल्मों में संगीत दिया अनुराधा, गोदान और मीरा । अनुराधा के दो गीतों में मन्ना डे ने अपना स्वर दिया बाकी के सारे गीत स्वयं लताजी ने ही गाये। आज हम आपको अनुराधा फिल्म का ही एक गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसे पंडितजी ने राग मांज खमाज में ढ़ाला है। यह कुछ कुछ विरह गीत सा है। जैसा कि आप गीतों की महफिल में इस फिल्म की समीक्षा ( फिल्म समीक्षा: अनुराधा 1960) में पढ चुके है कि फिल्म के नायक निर्मल चौधरी एक डॉक्टर है और उन्हें दिन रात अपने मरीजों की ही चिन्ता लगी रहती है। उनके पास अपने परिवार के साथ बिताने के लिये समय है ही नहीं। उनकी पत्नी अनुराधा भी एक कलाकार है/थी।
इस बात के लिये अनुराधा को अपने पति से ज्यादा शिकायत नहीं पर कई बार वह आहत हो जाती है और ऐसे में एक दिन एक दुर्घटना में घायल हो कर दीपक (अभि भट्टाचार्य) उनके घर आते हैं। दीपक अनुराधा को चाहते थे और अनुराधा के पिता दोनों का विवाह भी करना चाहते थे पर विवाह नहीं हो पाता। ऐसे में दीपक अनु को गीत गाने के लिये बाध्य करते है और अनुराधा गीत में ही अपने पति से शिकायत करती है कि कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियाँ पिया जाने ना... लेकिन कितनी शालीनता से, शिकायत तो है पर इस शिकायत में कटाक्ष या नाराजगी का पुट पहीं है। शिकायत में भी प्रेम ही छलकता है।
लताजी ने पण्डितजी के संगीत के साथ पूरा न्याय किया और ऐसा माहौल उतपन्न करने में सफल रही कि गीत सुनने वाले( देखने वाले नहीं) भी यह महसूस करने लगते हैं कि वाकई नायिका की शिकायत कितनी सही है।
नायिका कहती है रुत मतवाली भी आ कर चली जाती है पर मेरे मन की तो मेरे मन में ही रह जाती है, और शैलेन्द्र साहब के शब्दों की खूबसूरती देखिये, कजरा ना सोहे, बदरा ना सोहे.. नायिका को काजल और बादल कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा, और आगे नायिका कहती है कि जब मेरी सहेलियाँ मेरी उदासी का कारण पूछेंगी तो मैं उन्हें क्या कहूंगी?...श्रोता बिरादरी लता उत्सव के ज़रिए आपको समय के साथ बदलती लता जी की आवाज़ से भी अवगत करा रही है । हैरत ये होती है कि अलग अलग गानों में लता जी के स्वर में अदभुत बदलाव नज़र आता है बल्कि कहें कि सुनाई देता है । लता जी जब इस गाने को गाती हैं तो हमें लगता है मानो लता नहीं बल्कि अनुराधा गा रही है । वो अनुराधा जिसकी मन:स्थिति को कोई नहीं समझता है ।
इस गाने को सुनिए और महसूस कीजिए कि कितना दुर्लभ संगम है ये पंडित रविशंकर, शैलेंद्र और लता जी का ।
हायऽऽऽ
कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया
पिया जाने ना, हाय
नेहा लगा के मैं पछताई
सारी सारी रैना निन्दिया न आई
जान के देखो मेरे जी की बतिया
पिया जाने ना, हाय
कैसे दिन बीते ......
रुत मतवाली आ के चली जाये
मन में ही मेरे मन की रही जाये
खिलने को तरसे नन्ही नन्ही कलियाँ
पिया जाने न, हाय
कैसे दिन बीते .......
कजरा न सोहे गजरा न सोहे
बरखा न भाये बदरा न सोहे
क्या कहूँ जो पूछे मोसे मोरी सखियाँ
पिया जाने न, हाय
लता/80 स्वर उत्सव की इस श्रृंखला में आज हम एक अहम पड़ाव पर आ पहुंचे हैं । हमारा ये स्वर उत्सव लता जी के गायन के अलग अलग पहलुओं को समझने और परखने का सिलसिला है । आज इस स्वर उत्सव की तेरहवीं कड़ी में हम जा रहे हैं हिंदी सिने संगीत के पितामह कहे जाने वाले दादा अनिल विश्वास के संगीत ख़ज़ाने की ओर । बारीसाल बंगाल में पैदा हुए दादा अनिल विश्वास की सबसे बड़ी खासियत थी उनका ज्ञान और उनका समर्पण, उन्होंने ऐसा कोई गाना नहीं बनाया जो उनकी मरज़ी के खिलाफ हो ।
अनिल विश्वास की संगीत-यात्रा पर कुबेर दत्त की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी आई है । इस वक्त हमें उसका नाम याद नहीं आ रहा है । अनिल दा ही वो संगीतकार हैं जिन्होंने तलत महमूद को विश्वास दिलाया कि उनकी आवाज़ की लरजिश ही उनकी दौलत है । अनिल दा ही वो संगीतकार हैं जिन्होंने डांट-डपटकर कई प्रतिभाओं को संवारा । और लता मंगेशकर भी उन्हीं प्रतिभाओं में से एक हैं । लता जी बड़े ही सम्मान के साथ अनिल बिस्वास का जिक्र करती हैं । ( इस तस्वीर में लता जी और मीना कपूर हैरत से देख रही हैं और दादा अनिल बिस्वास पकौड़े तल रहे हैं )
आज श्रोता-बिरादरी जिस गीत का जिक्र कर रही है वो फिल्म आराम का है । जो सन 1951 में आई थी । इस गाने को चुनने की एक वजह और है । आज है अभिनेता-निर्माता-निर्देशक देव आनंद का 85 वां जन्मदिन ।
ये गाना देव आनंद और मधुबाला पर फिल्माया गया है । इसे प्रेम धवन ने लिखा है । इस गाने को सुनकर आप सहज ही अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लता जी का रियाज़ कितना कड़क है ।
बालमवा नादान
समझाए ना समझे दिल की बतियां
बालमवा नादान ।।
बालमा जा जा जा । अब कौन तुझे समझाए ।
मैं चंदा की चांदनी हूं, मैं तारों की रानी
मेरे मतवाले नैनों से छलके मस्त जवानी
इन नैनों की बलमा तूने कोई क़दर ना जानी
बलमा जा जा जा ।।
एक रात की महफिल है ये झूम ले मस्ताने
देख शमा पर आकर कैसे मरते हैं परवाने
जी के मरना मर के जीना पगले तू क्या जाने
बलमा जा जा जा ।।
आर.के बैनर के बाहर जाकर भी अपने सुरीलेपन को साबित करने वाली संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन आज स्वर उत्सव की मेहमान है. सुर-देवी लता मंगेशकर का ८० वाँ जन्मदिन अनक़रीब है और श्रोता-बिरादरी द्वारा चलाया गया यह आपकी प्रेमपूर्ण प्रतिक्रियाओं के प्रति नतमस्तक है. हमें कभी भी टिप्पणियों का लालच नहीं रहा है और हम मानते रहे हैं कि एक बड़ा संगीतप्रेमी वर्ग ऐसा है जो इन कालजयी रचनाओं को सुनकर उससे उपजे आनन्द को पीना और कहीं भीतर ही आनंदित होना चाहता है. आइये शंकर-जयकिशन (एस.जे)की बात कर लें.
राग भैरवी के अदभुत चितेरे एस.जे शंकरसिंह रघुवंशी और जयकिशन पंचोली अपने जीवन-काल में ही एक जीते-जागते युग बन गये थे. एस.जे का संगीत अवाम का संगीत तो था ही क्योंकि राज कपूर जैसे जनता के लाड़ले कलाकार और उनका क़रीबी संगसाथ था.लेकिन साथ ही यह भी कहना चाहेंगे कि शास्त्रीय संगीत के लिये जब जब भी कोई स्थान निकला एस.जे अपने बेस्ट फ़ार्म में नज़र आए.इस बात की पुष्टि के लिये १९५६ में बनी फ़िल्म बसंत-बहार के रूप में एक ही उदाहरण काफ़ी है.
एस.जे के पूरे संगीत में से यदि लताजी को निकाल दिया जाए तो वह बेसुरा सा प्रतीत होगा. इस जोड़ी ने लताजी के साथ ऐसी रचनाएं सिरजीं जो फ़िल्म संगीत का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. एस.जे ने आर्केस्ट्रेशन में भव्यता के नये सोपान रचे. वॉयलिन,सितार,ढोलक,बाँसुरी के साथ एकॉर्डियन का खूबसूरत इस्तेमाल इस जोड़ी ने किया.साथ ही क्लेरोनेट,चैलो,मेण्डोलिन भी एस.जे के संगीत में बहुत मधुर सुनाई दी है. लेकिन यह भी महसूस कीजियेगा कि यदि श्रोता-बिरादरी की बिछात पर आज बज रहे गीत बड़े आर्केस्ट्रा की ज़रूरत नहीं है तो नहीं है . ज़रूरत के मुताबिक एस.जे नें यहाँ एकदम सॉफ़्ट धुन सिरज दी है.
शंकर-जयकिशन जैसे गुणी संगीतकारों के बारे में यह जानना भी रोचक होगा कि कुछ ही गीत हैं जो दोनो ने मिल कर बनाए हैं. वे दोनो काम को आपस में बाँट लिया करते थे और अपनी अपनी धुनो को रचते थे. हाँ किसी भी हालत में रेकॉर्डिंग साथ मिल कर ही करते.लताजी से जिस तरह से इस जोड़ी ने कोमल स्वरों (माइनर नोट्स)का उपयोग करवाया है वह विलक्षण है.फ़िल्म सीमा के लिये लिखे गये इस गीत में शैलेन्द्र एक बार फ़िर चित्रपट के सूर-मीरा बन कर अपनी क़लम से शास्त्रीय संगीत की ऐसी बंदिश रच गए हैं कि उनके चरन पखारने को जी चाहता है
आज स्वर उत्सव में शंकर-जयकिशन की रची फ़िल्म सीमा (बलराज साहनी-नूतन)बंदिश मन मोहना बड़े झूठे राग जैजैवंती में है. मज़ा देखिये कि एक चित्रपट गायिका होने बावजूद शास्त्रीय संगीत को गाने की समर्थता को कैसे साबित किया है लताजी ने. एक छोटे से आलाप के साथ ली गई आमद जैसे मन के भीतर तक उतर जाती है.कहते हैं शंकर स्पाँटेनिटि के बेजोड़ खिलाड़ी थे. जैसे इसी गीत में देखिये उत्पात मचाती नायिका का जब ह्र्दय परिवर्तन हुआ हो तो कैसी बंदिश रची जाए.ये भी सिचुएशन है कि नायक बलराज साहनी और नूतन के बीच एक आत्मीयता पनपी सी दिखाई दे रही है और फ़िल्म सीमा का जो कथानक है उस हिसाब से हीरो-हिरोइन को झाड़ के नीचे तो नहीं नचाया जा सकता. दिग्दर्शकीय कौशल को संगीतकार कैसे विस्तार दे सकता है उसका नमूना है यह गीत.मन मोहना बड़े झूठे यह मुखड़ा अपेक्षाकृत नीचे स्वर से शुरू हुआ है कारण यह भी है कि आगे अंतरे में स्वर को तार सप्तक भी ले जाना है. लताजी का पीछा करती सारंगी भी एस.जे के संगीत कौशल की ही करामात है.शास्त्रीय गायन में अमूमन सारंगी और हारमोनियम ही इस्तेमाल होता है सो यहाँ भी उस मर्यादा का निर्वाह किया है संगीतकार ने.अंतरा समाप्त होते होते एक तान लेकर मनमोहना की तिहाई लताजी ने ली है उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का वक्तव्य याद हो आता है......कमबख़्त ग़लती से भी बेसुरा नहीं गाती;ये तो हक़ीक़त में उस्तादों की उस्ताद है.वाक़ई इस और इस जैसे दीगर कई शास्त्रीय संगीत आधारित रचनाएँ गाते सुनना यानी इस सुरकंठी पर मर जाना है.....शायद यही अंतिम जुमला है जो अति-वाचाल मनुष्य लताजी के लिये हक़लाते हुए बोल सकता है.
आइये मनमोहने वाली फ़िल्म सीमा की इस बंदिश को सुनते सुनते लता मंगेशकर और शंकर-जयकिशन के संगीत वैभव में रची मिसरी को कानों में घोल लें तो आज के समय में पसर रहा शोर कुछ कम हो सके.दोस्तों चित्रपट संगीत का अहसान हम पर जिसने लता मंगेशकर नाम की अचूक औषधी हमें दी जो बढ़ती उम्र को कुछ देर के लिये रोक लेती है........जैजैवंती गा रही हैं विदूषी लता मंगेशकर...पंडित दीनानाथ मंगेशकर के घर की सबसे सुरीली बेटी.
मनमोहना बड़े झूठे
हार के हार नहीं माने
मनमोहना
बने थे खिलाड़ी पिया
निकले अनाड़ी पिया
मोसे बेइमानी करे
मुझसे ही रूठे
मनमोहना
तुम्हरी ये बाँसी कान्हा
बनी गल फाँसी
तान सुनाके मेरा
तन मन लूटे
मनमोहना
स्वर उत्सव आज अपने ग्याहरवें पड़ाव पर आ पहुंचा है। आज हम एक ऐसे संगीतकार के गाने के बारे में बताना चाहेंगे जो फिल्मों में अनायास ही संगीतकार बन गये.... यानि वसंत देसाई।
वसंत देसाई के बारे में हम सब जानते हैं कि वे व्ही. शांताराम जी के प्रिय संगीतकार थे। व्ही. शांताराम जी की फिल्में अपनी गुणवत्ता, निर्देशन, नृत्य और कलाकारों के साथ अपने मधुर गानों के लिये भी जानी जाती है। उनकी लगभग सभी फिल्मों में वसंत देसाई ने संगीत दिया। फिल्म खूनी खंजर में अभिनय भी कर चुके थे और गाने भी गा चुके थे। बाद में वे संगीतकार गोविन्द राव टेम्बे (ताम्बे) के सहायक बने और कई फिल्मों में गोविन्द राव के साथ संगीत दिया। बाद छिपी संगीत प्रतिभा को शांतारामजी ने पहचाना और अपनी फिल्मों में संगीत देने की जिम्मेदारी सौंपी और वसंत देसाई इस काम को बखूबी निभाय़ा और राजकमल की फिल्मों को अमर कर दिया।
दो आँखे बारह हाथ, तीन बत्ती चार रास्ता, डॉ कोटनीस की अमर कहानी, सैरन्ध्री, तूफान और दिया आदि कुल ४५ फिल्मों में संगीत दिया। वसंत देसाई के बारे में ज्यादा जानकारी के लिये यहाँ देखें। आज हम जिस गीत की बात करने जा रहे हैं वह गीत फिल्म जनक झनक पायल बाजे फिल्म का नैन सो नैन नाही मिलाओ .... है। इस गीत को वसंत देसाई ने राग मालगुंजी में ढ़ाला था। इस फिल्म में लता जी ने कई गीत गाये उनमें से प्रमुख है मेरे ए दिल बता, प्यार तूने किया पाई मैने सज़ा, सैंया जाओ जाओ तोसे नांही बोलूं, जो तुम तोड़ो पिया मैं नाहीं तोड़ूं आदि थे परन्तु हमारा मानना है कि लता जी को प्रसिद्धी के इस मुकाम पर पहुंचाने में जिन गानो का हाथ है वे गाने सिर्फ लताजी ने अकेले नहीं गाये थे। कई ऐसे भी गाने हैं जिनमें लताजी का साथ अन्य गायक,गायिकाओं ने साथ दिया और उन गीतों के साथ लता जी प्रसिद्ध हुई।
चूंकि यह फिल्म ही संगीत/नृत्य के विषय पर बनी है तो इसमें संगीत तो बढ़िया होना ही था साथ ही इस फिल्म का विशेष आकर्षण थे सुप्रसिद्ध नृत्यकार गोपीकृष्ण जिन्होनें एक नायक के रूप में इस फ़िल्म में अभिनय भी किया है। जैसा की हमने पहले बताया प्रस्तुत गीत राग मालगुंजी में ढ़ला है और इसमें गोपीकृष्ण -संध्या की अप्रतिम नृत्य बानगियाँ भी हैं। आज श्रोता बिरादरी पर सुने जा रहे गीत में लताजी का साथ दिया है हेमंत कुमार ने। अब वसंत देसाई का संगीत, गोपी कृष्ण- संध्या का नृत्य और लताजी-हेमंत दा की शांत-गम्भीर आवाज में यह गीत देखने-सुनने वालों को सम्मोहित कर देता है।
इस गीत को सुनते वक़्त यह ज़रूर ख़याल रखें कि फ़िल्म विधा के व्यावसायिक मापदंण्ड होने के बावजूद शांतारामजी जैसे फ़िल्मकारों ने शास्त्रीय संगीत के शानदार कारनामें अपनी तस्वीरों में इस्तेमाल किये। ये भी ख़याल रहे कि इस गीत को महज़ मेलोडी कह देना नाकाफ़ी होगा,ये सौदंर्य के साथ माधुर्य की जुबलबंदी है जिसमें इस गीत को सादा मनोरंजन से आगे ले जाकर पवित्रता का बाना पहनाया है। इस तरह यह गीत कई युगल गीतों से मीलों आगे चला गया है. कामदेव की भावना को पावनता की हद में शांतारामजी ने क्या कमाल का दृष्य रचा है। कहना चाहेंगे पं.वसंत देसाई (महज़ वसंत देसाई इस गीत के साथ थोड़ा ठीक नहीं लगता) ने इस गीत के ज़रिय आध्यात्मिक की पराकाष्ठा को छुआ है। हाँ ये भी जान लें कि इस गीत को भरत व्यास,शैलेन्द्र या कवि प्रदीप ने नहीं हसरत जयपुरी ने रचा है. नज़ाकत और भाव पक्ष देखिये , क्या कमाल कर गए हैं हसरत साहब।
हेमंतकुमार और लता मंगेशकर इस गीत को गाते हुए एक ख़ास क़िस्म का एस्थेटिक रच गए हैं जिसमें गरिमा है,भावों की तर्जुमानी है और एक संदली पावनता की सृष्टि है। जिन कोमल स्वरों को वसंत देसाई जी ने इस मालगुंजी बंदिश में साधा है लता-हेमत उससे इक्कीसा गा गए हैं.धीर गंभीरता के साथ जब लता गा रही हैं तो लगता है पूर्णिमा की रात को राधा जी रास कर रही हैं। भाव-प्रणवता के साथ आध्यात्मिकता को जगाते ये दो स्वर सुरों की दुनिया के देवता बन गए हैं।
बेसुरी रिवायतों को रचने वालों शुक्र है मनुष्य को जिलाने के लिये लता इस धरती पर आई और गा गई ऐसे चोखे गीत।
लता/80 स्वर उत्सव पूरे जोशो खरोश के साथ जारी है । पिछले दिनों हमने आपसे वादा किया था कि एक कम चर्चित संगीतकार और लता ही के साथ की बातें की जायेंगी । लेकिन फिर हम मुड़ गए थे संगीतकार रवि की ओर । आज हम पुन: उस भूले-बिसरे सूत्र को पकड़कर लता/80 स्वर उत्सव को आगे बढ़ा रहे हैं । लता जी ने कई ऐसे संगीतकारों के साथ काम किया है, जिनका फिल्मी दुनिया में उतना नाम नहीं हुआ जिसके वो हक़दार थे । और दिलचस्प बात ये है कि लता जी के कुछ बेमिसाल गाने ऐसे संगीतकारों ने दिये हैं । आज हम जिस संगीतकार के साथ लता जी का एक दो-गाना लेकर आए हैं, उसके बारे में हमें खुद ज्यादा जानकारी नहीं है । अगर श्रोता बिरादारी के चाहने वालों को उनके बारे में ज्यादा पता है तो ज़रा हमें रोशनी दिखाईयेगा । इनका नाम है जी.एस.कोहली । कोहली साहब की सबसे बड़ी फिल्म मानी जाती है 'शिकारी' । जो सन 1963 में आई थी । इसके अलावा उनकी मशहूर फिल्में हैं-'नमस्ते जी' जो सन 1965 में आई थी । इसके अलावा कुछ और फिल्में हैं पर उनका ज़रा भी नाम नहीं हुआ । बहरहाल । फिल्म शिकारी का ये गाना हमने क्यों चुना । ये सबसे बड़ा सवाल है । दरअसल ये एक बहुत ही नशीला युगल गीत है । रफी साहब और लता जी दोनों की आवाज़ में एक प्रेमिल-मादकता है । जब लता जी 'ज़रा-ज़रा है' को जिस तरह लहराकर गाती हैं तो दिल अश अश कर उठता है । और फिर उसके बाद उनका आलाप । उफ़ । गाने का संगीत संयोजन कमाल है । अदभुत है । ज़रा वाद्यों के इस्तेमाल पर ग़ौर कीजिए । सेक्सोफोन, बांसुरी, सितार, ग्रुप वायलिन । इन सबका ऐसा इस्तेमाल जो हम पर एक नशा तारी कर देता है । फिल्म संगीत के सबसे नशीले गानों में हम इसकी गितनी करते हैं । तो चलिए इस गाने में डूब जाएं, ये तीन मिनिट दस सेकेन्ड का तिलस्म है । एक बार गाना शुरू किया तो आप इससे बाहर नहीं आ पायेंगे । लता जी को सलाम और उससे भी ज्यादा सलाम जी.एस.कोहली को ।
सादी धुन से जादू जगाना किसे कहते हैं जानना हो तो लताजी को सुनिये. सन 1951 की फ़िल्म है मल्हार । संगीतकार हैं रोशन साहब इसी फ़िल्म के दो गीत बड़े अरमानो से रख्खा है बलम तेरी क़सम और कहाँ हो तुम ज़रा आवाज़ दो हम याद करते हैं ख़ासे लोकप्रिय हुए थे. नग़मानिगार थे इंदीवर और क़ैफ़ इरफ़ानी. समीक्षित गीत कैफ़ साहब का लिखा है. व्यावसायिक दृष्टि से मल्हार एक असफल तस्वीर थी लेकिन रोशन साहब का संगीत गाँव-गाँव गली-गली गूँजा था.एक और जानकारी नोट कर लें मल्हार का साउंडट्रेक गायक मुकेश ने तैयार किया था.
मुहब्बत की क़िस्मत बनाने से पहले ...ये गीत चित्रपट संगीत की दुनिया में लोकप्रिय पंजाब स्कूल या पंजाबी तर्ज़ों की रिवायत का निर्वाह था. लेकिन इसके बावजूद रोशन साहब अपना रंग छोड़ने में क़ामयाब रहे हैं.शास्त्रीय और लोक संगीत पर गूढ़ काम करने वाले रोशन साहब रूमानी संगीत रचने वाले अपने समय के संगीत-मनीषी थे. शिवरंजनी,मियाँ मल्हार,यमन,भैरवी जैसे रागों का जिस ख़ूबसूरती से उपयोग रोशन साहब ने किया है वह मन को छू सा जाता है. वाद्यवृंद के मामले में भी रोशन साहब अतिरिक्त सतर्कत बरतते थे.पं.रामनारायण,हरिप्रसाद चौरसिया,ज़रीन दारूवाला,पं.शिवकुमार शर्मा की क़ाबिलियत का इस्तेमाल भी बड़ी ख़ूबी से करते थे संगीतकार रोशन.जहाँ जैसी रिद्म चाहिये बस वहाँ वैसी ही बजी है.न कम ..न ज़्यादा. इस गीत में भी देखिये ताल का कमाल कितना सादा है. अंतरों को भी वैसे ही रचा गया जैसा हमारे लोकगीतों में होता है.बिना किसी अतिरिक्त वर्ज़िश के गा रहीं हैं लता जी. जैसे जीवन का सारा दु:ख इस गीत में आन समाया है और निर्मल मोगरे सा पावन लताजी क स्वर जैसे पूरी शिद्दत से अपने ग़म में शरीक़ कर रहा है.ए
ख्यात स्तंभकार अजातशत्रु बजा फ़रमाते हैं कि लता की आवाज़ का दर्द निर्माता के नोटों,पात्र या सिचुएशन के लिये नहीं,ज़माने को राहत बख़्शने के लिये बना है
.मुखड़े को सुनते वक्त ध्यान दीजियेगा कि क़िस्मत और ज़ुल्म शब्दों को लताजी ने जिस तरह सम्हाला है वह गीत की बहर (मीटर) को सहेजने के लिये कितना ज़रूरी था.करिश्माई श्वास संतुलन और लाजवाब टाइमिंग की खिलाड़ी हैं.(वैसे ही जैसे सचिन तेंडुलकर शोएब अख़्तर की गेंद को को स्लिप से चार रन के लिये बाउंड्री के बाहर कर दिया करते थे...कोई ताक़त नहीं ,बस परफ़ेक्ट टाइमिंग)गीत को सुनते हुए आप भी गुनगुनाना चाहें तो बोल हाज़िर हैं...देखियेगा रोशन की धुन का जादू दो बार सुनने पर धुन याद हो जाती है...
मुहब्बत की क़िस्मत बनाने से पहले ज़माने के मालिक तू रोया तो होगा
मुहब्बत पर ये ज़ुल्म ढाने से पहले ज़माने के मालिक तू रोया तो होगा.
तुझे भी किसी से अगर प्यार होता
हमारी तरह तू भी क़िस्मत को रोता
ये अश्क़ो के मेले लगाने के पहले
ज़माने के मालिक तू रोया तो होगा
मेरे हाल पर ये जो हँसते हैं तारे
ये तारे हैं तेरी हँसी के इशारे
हँसी मेरे ग़म की उड़ाने के पहले
ज़माने के मालिक तू रोया तो होगा
मुहब्बत को तूने दिलों में बसाया
मुहब्बत ने ग़म का ये तूफ़ाँ उठाया
ये तूफ़ान दुनियाँ में लाने से पहले
ज़माने के मालिक तू रोया तो होगा.
हर संगीतकार और गीतकार अपनी ओर से हमेशा सर्वश्रेष्ठ रचते हैं लेकिन आख़िरी कारनामा गायक का होता है और यहीं काम लता मंगेशकर जिस सहजता से कर गुज़रतीं हैं उसके लिये शब्दकोश के शब्द कम पड़ते हैं.यक़ीन न आए तो ये गीत सुन लीजियेगा...हमारी अम्मी,मौसी,अक्का,चेची,जीजी,ख़ाला,बेन,ताई और आपा की जवानी का गीत है यह जो उन्होनें कभी ज़रूर गुनगुनाया होगा...आप भी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ
लताजी के स्वर उत्सव में आज हमने आपको स्नेहल भाटकर का एक गीत सुनाने का निश्चय किया है। स्नेहल भाटकर ने कई हिन्दी फिल्मों में संगीत दिया जिनमें से प्रमुख है हमारी याद आयेगी। इस फिल्म का गीत कभी तन्हाईयों में बहुत प्रसिद्ध हुआ और साथ ही गीत की गायिका मुबारक बेगम भी।
यूनुस खान ने अपने ब्लॉग रेडियोवाणी पर स्नेहल भाटकर पर एक विस्तृत लेख भी लिखा था और उनके संगीतबद्ध गीत भी सुनवाये थे। आप उन्हें यहाँ देख सकते हैं।
स्नेहल भाटकर के निर्देशन में महान गायक - संगीतकार हेमंत कुमार ने भी गीत गाया था; लहरों पे लहर, उल्फ़त है जवां...बहरहाल आज हम जो आपको गीत सुनाने जा रहे हैं वह हिन्दी में ना होकर मराठी में है। कहते हैं ना संगीत किसी भाषा का मोहताज नहीं होता! इस गीत के बोल समझ में नहीं आते, अर्थ पता नहीं चलता ; फिर भी गीत सीधे दिल में उतर जाता है। इस गीत की खास बात यह है कि खुद स्नेहल भाटकर ने लताजी का साथ दिया है। स्नेहल एक अच्छे संगीतकार होने के साथ बहुत अच्छे गायक भी थे। स्नेहल भाटकर का २९ मई को निधन हो गया था।
आईये सुनते हैं इस सुमधुर मराठी गीत को।
लता/80 स्वर उत्सव मे जिक्र हो रहा है अलग-अलग संगीतकारों के साथ लता जी के काम का । आप समझ सकते हैं कि ये कितना दुरूह काम है । लता जी के इतने विराट काम में से हमें चुनना है कुल पंद्रह संगीतकार । कल 'श्रोता बिरादरी' पर आपसे कहा गया था कि आज किसी कम चर्चित संगीतकार का जिक्र होगा । लेकिन शाम होते होते हमारा इरादा बदल गया और हमने संगीतकार रवि के काम का रूख कर लिया ।
संगीतकार रवि दिल्ली के रहने वाले हैं । और डाक तार विभाग में नौकरी करते हुए भी उनके मन में विकलता थी गायक बनने की । मुंबई आना चाहते थे पर कोई उपाय समझ नहीं आ रहा था । रफ़ी साहब जब दिल्ली गए तो किसी तरह जुगत भिड़ाकर उनसे मुलाक़ात की । बताया कि हमें बंबई आना है । फिर लंबा संघर्ष किया । सहायक संगीत निर्देशक रहे, हेमंत कुमार के । मौक़ा आया तो रवि और चंद्रा ने संगीत भी दिया जोड़ी बनाकर । फिर बी आर फिल्म्स की कई फिल्मों में ऐसा संगीत दिया कि रवि का नाम चारों तरफ गूंजने लगा । बस यही दिक्कत रह गयी कि संगीत के कद्रदान अकसर महत्त्वपूर्ण संगीतकारों की फेहरिस्त में उन्हें शामिल करना भूल जाते हैं । लता जी ने रवि के साथ अपने कई बेमिसाल गाने गाए हैं । जैसे 'ऐ जाने वफा ये जुल्म ना कर', 'तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा' वग़ैरह ।
आज हम आपके लिए एक ऐसा गाना लेकर आए हैं जिसकी बात ही अलग है । क्यों अलग है ये आगे बताएंगे । पहले ये जान लीजिये कि 1960 में आई इस फिल्म के सितारे थे भारतभूषण, बीना राय, प्रदीप कुमार और आशा पारेख । ये रहा इस गाने का वीडियो ।
लता मंगेशकर के अस्सी वें जन्मोत्सव की बेला का स्वर-उत्सव शबाब पर है और आपसे मिल रहा फ़ीडबैक हमें उत्साहित कर रहा है. शुक्रिया; हमारे साथ बने रहियेगा २८ सितम्बर तक.
आज की इस पेशकश में आमद है एक विलक्षण संगीतकार सी.रामचन्द्र की जिन्होंने चितलकर के नाम से गीत भी गाए हैं और जिन्हें प्रेम से अण्णा भी संबोधित किया जाता रहा है.अनारकली,आशा,अलबेला,आज़ाद और यास्मीन जैसी फ़िल्मों से चर्चा में आए इस फ़ितरती संगीतकार ने अपने मूड और तेवर को हमेशा क़ायम रखा. अनारकली में अमर और मर्मस्पर्शी रचनाएँ देने के बाद जब अलबेला का संगीत रचा गया तो वह पूरे देश में एक जादू सा छा गया. हालाँकि अण्णा ईमानदारी से स्वीकारते थे कि अलबेला की रचनाएँ एक कमर्शियल फ़िल्म की मांग के अनुरूप गढ़ी गईं थी.लेकिन फ़िर भी धीरे से आना री अखियन में और बलमा बड़ा नादान रे में सी.रामचंद्र का ख़ालिस स्टाइल बरक़रार रहा.
बहरहाल आज स्वर उत्सव में बात करेंगे फ़िल्म झांझर(1953) की.प्रमुख भूमिका थी मोतीलाल,कामिनी कौशल,उषा किरण,सज्जन और ओमप्रकाश की. निर्देशन किया था केदार शर्मा ने और गीत लिखे राजेन्द्र कृष्ण ने.इसमें कोई शक नहीं कि गायक और संगीतकार का रिश्ता बेहद रूहानी होता है. अण्णा के लिये गाते वक़्त लताजी की एकाग्रता और तन्मयता बेजोड़ होती रही है. ये बात महज़ आज श्रोता-बिरादरी पर बजने वाले इस गीत नहीं ;सी.रामचन्द्र और लता मंगेशकर की तमाम जुगलबंदियों में प्रतिध्वनित होती आई है.इसमें कोई शक नहीं कि एकाधिक संगीतकारों ने लता मंगेशकर की गायकी को तराशा लेकिन सी.रामचंद्र ने इस महान गायिका के गायन में आत्मा,भावना और जज़बातों के स्पर्श को जगाया. यही कारण है कि एक अदभुत मेलडी इन दो गुणी कलाकारों के मेल से बनी. अण्णा को आप विद्रोही संगीतकार भी कह सकते है. कभी उन्होंने पश्चिम का संगीत रचा तो कहीं बहुत लाजवाब अंदाज़ में भारतीय शास्त्रीय संगीत के का रंग जमाया.
सी.रामचंद्र के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर कहीं कहीं काल के परे गा गईं हैं .इस बात की तसदीक राग खमाज में निबध्द में गीत तुम क्या जानों तुम्हारी याद में हम कितना रोए(शिन शिनाकी बूबला बू ) या राग बागेश्री में जाग दर्दे इश्क़ जाग (अनारकली) और कटते हैं दु:ख में ये दिन पहलू बदल के (परछाईं)अपने आप कर देते है.
सी.रामचंद्र स्फ़ूर्तता के पर्याय थे.झांझर के गीत रचते समय ही उन्हें अनारकली का काम मिला था और समय की मर्यादा में उन्होंने दोनो फ़िल्मों के साथ न्याय किया. ऊंचे पिच लताजी ने जिस बेक़रारी से गाई वह सुननेवाले को अजीब नैराश्य में ले जाती है.
ऐ प्यार तेरी दुनिया से हम बस इतनी निशानी लेके चले,
एक टूटा हुआ दिल साथ रहा ,बस रोती जवानी ले के चले.
मतले में ही लताजी ने सारा दर्द उड़ेल दिया है.किसी संगीतकार ने यदि किसी एक गायक से अत्यधिक एकल गीत गवाए हैं तो वह हैं सी.रामचंद्र और गायिका बिला शक लता मंगेशकर और इन गीतों की संख्या 200 से कम नहीं है. लता-सी.रामचंद्र का संगीत ऐसे सोपान रच गया है जिसका एक छोर तो है लेकिन दूसरा नहीं;कारण महज़ यह कि जहाँ इस जोड़ी की रचना समाप्त होती है वहाँ से किसी दूसरे घराने के संगीत की ओर रूख़ करना बड़ा कठिन प्रतीत होता है.सी.रामचंद्र के संगीत में लताजी ने जो विकलता रची है उसकी पराकाष्ठा है ये ग़ज़ल.पूरा समय जैसे ठाठे मार कर रो पड़ा है. बेकसी,बेक़रारी,तिश्न्गी...चाहे जितने लफ़्ज़ इस्तेमाल कर लें ; कम पड़ेंगे इस ग़ज़ल को सुनने के बाद . मतले सहित बमुश्किल दो शेर हैं लेकिन लगता
जैसे लताजी इन छह मिसरों में पूरी ज़िन्दगी के आँसू बरसा गईं हैं.कौन याद आ रहा है
कोल्हापुर या पण्डित दीनानाथ मंगेशकर ?
ये शेर पढ़ लें और फ़िर सुनें झांझर फ़िल्म की ग़ज़ल.....
बस अब ये हैं बैसाखियाँ अपाहिज शामों की
चंद नग़्माते-माज़ी और यादों के उठे ग़ुबार
कल की कड़ी में होंगे एक कम चर्चित संगीतकार ।
जारी है लता/80 स्वर उत्सव ।
खुद भी शामिल होईये और दूसरों को भी बताईये ।
हमारे साथ मनाईये लता/ 80 स्वर उत्सव
सन१९४९आतेआतेलताजीएकप्रतिष्ठितगायिकाबनचुकीथी, औरहरेकसंगीतकारलताजीकोअपनेगानेगवानाचाहतेथे। इसीसालएकफिल्मआईलाहोरजिसमेंमुख्यभूमिकायेंनरगिसऔरकरणदीवानकीथी। यह फिल्म बँटवारे के विषय पर आधारित थी, और फिल्म के संगीतकार थे श्यामसुन्दर।श्यामसुन्दरइससेपहलेलताजी को एक्ट्रेसफिल्मकेगानेहेल्लोहेल्लोजेन्टलमेन... मेंशमशादबेगमकेसाथगवाचुकेथेपरवोबातनहींबनी। श्यामसुन्दर भी इससेपहलेकईफिल्मोंमेंसंगीतदेचुकेथेमसलनगाँवकीगोरी, भाईजान, एकरोज, चारदिन, देवकन्याआदि... औरउसजमानेकेसभीगायककलाकारजैसेनूरजहां, सुरैया, अमीरबाई, मोहम्म्दरफीआदिउनकेनिर्देशनमेंगाचुकेथे। लाहौरफिल्मकेगीतोंकेलियेएकबारफिरउन्होनेलताजीकोचुना।इसफिल्ममेंबहुतसारेऔरएकसेएकलाजवाबगीतथे।परदोगीतऐसेथेजोसबकीजुबांपरचढ़गयेपहलातोथाबहारेंफिरभीआयेंगीमगरहमकहां होंगेऔरदूसराथादुनियाहमारेप्यारकीयूंहीजवांरहे, मैंभीजहाँपररहूंमेरासाजनजहांरहे.. ।आज की पोस्ट में अगर बहारें फिर भी आयेंगी वाला गाना लगाया जाता तो अच्छा होता पर यह गीत सबका सुना और जाना पहचाना है सो श्रोता बिरादरी ने दूसरा गीत यानि दुनिया हमारे प्यार की आपको सुनाने का निश्चय किया।इसगीतमेंलताजासाथदियाथाइसफिल्मकेनायककरणदीवानने।करणदीवानउसजमानेकेजानेमानेगायक-अभिनेताथे। खैरयहस्वरउत्सवलताजीकाहैतोएकबारफिरलताजीकीगायकीपरआतेहैं।आजहमजिसगीतकोआपकोचुनानाचाहतेहैंवहएकहल्काफुल्काप्रेमगीतहैपरन्तुलताजीनेएकबारपिरअपनीआवाजसेइसगीतमेंप्राणडालदिये, औरगीतकोअमरबनादिया। करण दीवान भी बेहद मधुर गायक थे। इस गीत में ना केवल लताजी, वरन करण दीवान ने भी अपनी मधुर आवाज से इस गीत को अमर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।आपनेइसगीतकोअबतकनहींसुनाहैतोहमाराविश्वासहैआपइसेएकबारसुननेआपकामननहींभरेगा। आईयेगीतसुनतेहैं।
लता/80 स्वर-उत्सव में कल आपने मदनमोहन के संगीत का आनंद लिया ।
आज हम आपको ले चल रहे हैं संगीतकार सलिल चौधरी के उस रचना-संसार में जहां लता मंगेशकर की स्वरलहरियां अपना तिलस्म रचती हैं ।
लता जी का सलिल चौधरी से विशेष अनुराग रहा है और सलिल दा ने लता जी के लिए हमेशा बेहद अनूठे और प्रायोगिक गीत तैयार किये हैं ।
क्या हम भूल सकते हैं परख फिल्म का गीत--ओ सजना बरखा बहार आई या फिर मचलती आरजू खड़ी बाहें पसारे ।
मधुमति का आ जा रे परदेसी या फिर चढ़ गये पापी बिछुआ । लता और सलिल चौधरी के सुंदर संयोजन की फेहरिस्त काफी लंबी है । पर श्रोता-बिरादरी के रसिक श्रोताओं के लिए आज सलिल चौधरी के रचना संसार से एक ऐसा गीत जिसके दो रूप हैं ।
सलिल दा के बारे में ये तो आप जानते ही होंगे कि उन्होंने दुनिया भर के संगीत को अपनाया था । कभी किसी रूसी लोकगीत की धुन को अपने गाने में उतार दिया तो कभी किसी बांगला बाउल गीत को गाने की धुन बना लिया । कभी किसी विदेश सेना की मार्चपास्ट धुन बन गयी--जिंदगी कैसी पहेली हाय । कई बार तो ऐसा भी होता रहा कि सलिल दा धुन पर अपने डमी शब्द भी लिख देते थे । और गीतकार उन्हीं डमी शब्दों को आगे बढ़ा लेते थे ।
ऐसे अनगिनत गाने हैं जिन्हें सलिल दा ने बांगला और हिंदी दोनों में तैयार किया है । और इन्हीं गानों की फेहरस्ति में शामिल है ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद का गीत । हिंदी में इसके बोल हैं--ना जिया लागे ना । और बांगला में हैं--ना मोनो लगो ना ।
आज श्रोता बिरादरी पर हम चाहते हैं कि आप इस गाने के दोनों रूपों का लुत्फ उठायें और ध्यान दें कि इस गाने में एक पाश्चात्य मिज़ाज है तो दूसरी तरफ कैसे छिपी हुई भारतीयता है । कैसे इस गाने में लता जी के नीचे स्वर भी हैं और जब वो अपनी आवाज़ को उठाती हैं तो जैसे धरती और आकाश मिलते हुए नजर आते हैं ।
ये रहा इस गाने का बांग्ला संस्करण
और ये रहा इस गाने का हिंदी संस्करण जो फिल्म आनंद में था ।
ये रहे इस गाने के बोल।
हिन्दी
ना जिया लागे ना
तेरा बिना मेरा कहीं जिया लागे ना ।
जीना भूले थे कहां याद नहीं
तुझको पाया है जहां सांस फिर आई वहींजिंदगी तेरे सिवा हाय भाए ना ।
ना जिया लागे ना ।।
तुम अगर जाओ कभी जाओ कहीं
वक्त से कहना ज़रा वो ठहर जाए कहीं
वो घड़ी वहीं रहे, ना जाये ना
ना जिया लागे ना ।।
বাংগ্লা/ बांग्ला
ना मोनो लागे ना
ए जिबोने किछु जेनो भालो लागे ना
ना मोनो लागे ना
ई नोदिर दुई किनारे दुई तोरोनी
जोतोई नाबाइ नोंगोर बाधा काछे जेते ताई पारिनी
तुमी ओ पार थेके हाय सोरोनी ना
मोनो लागे ना
ना मोनो लागे ना
छोके छोके छेये कान्दा भालो लागे ना
आमी जे क्लांतो आजी शोक्ती उधाओ
कि होबे आर मिची मिची बेये बेये एइ मिछे ना
तुमीओ
तुमीओ ओपार थेके जाओ छोले जाओ ना
मानो लागे ना
लता/80 स्वर उत्सव में कल के संगीतकार होंगे श्याम सुंदर