Saturday, August 16, 2008

अब के बरस भेज भैया को बाबुल: श्रोता बिरादरी पर राखी का विकल गीत ।


चित्रपट संगीत की सबसे बड़ी ताक़त है उसका हर रंग, परिवेश, संबध और मनुष्य-व्यवहार से अपने आप को जोड़ लेना. फ़िल्मकार अपनी इस ताक़त का बड़ी मेहनत से इस्तेमाल करते आए हैं और हमने ये देखा है कि तीज त्योहार, तहज़ीब और संस्कारों को बड़ी ख़ूबसूरती से फ़िल्मों में अभिव्यक्त किया गया है. राखी, दीवाली, ईद, होली जैसे लोक-पर्व फ़िल्मों की शान रहे हैं. आज श्रोता बिरादरी पर चर्चा राखी प्रसंग को लेकर ।

याद कीजिये जब 1959 में बनी फिल्म 'छोटी बहन' का वह गीत 'भैया मेरे  राखी के बंधन को ना भुलाना'... यह गीत रहमान और नंदा पर फिल्माया गया था।  और इस गीत को आप कैसे भूल सकते हैं 1974 में बनी फिल्म 'रेशम की डोरी'  का गीत । जिसमें बहन बनी नायिका (फरीदा जलाल या कुमुद छंगाणी याद नहीं) अपने भाई धर्मेन्द्र की कलाई पर राखी बांधकर गा रही है, बहना ने भाई की कलाई पे प्यार बांधा है.. इस गीत को सुमन कल्याणपुर ने गाया था और शंकर जयकिशन ने इस गीत का संगीत दिया था।

इस तरह कई राखी गीत बने और प्रसिद्ध हुए पर श्रोता बिरादरी आज जिस गीत का जिक्र यहाँ करना चाहती है, पता नहीं क्यों जब भी राखी गीतों का जिक्र होता है उसे भुला दिया जाता है और ये गीत है सन 1963 में बनी फिल्म बंदिनी का........'अब के बरस भेज भैया को बाबुल..!'

ये गीत ऐसा है जो सीधे-सीधे राखी का गीत तो नहीं कहा जा सकता लेकिन जिसमें एक बहन बड़ी भावुकता में सावन मास में अपने भाई , उसके साथ बीते समय का जज़्बाती चित्रण कर रही. और जैसा कि ऊपर उल्लेख किया..यहाँ भी पूरे परिवेश का एक भावपूर्ण चित्र उकेरा गया है. पूरब के लोक-संगीत की रंगत लिये इस गीत की कविता और संगीत कुछ ऐसे मनोयोग को लेकर रचे गए हैं कि किसी भी मज़हब को मानने वाली बहन की अभिव्यक्ति हो सकता यह गीत.

आशा भोंसले जो.....अहसास की गायिका हैं , इस गीत को अपने श्रेष्ठ गीतों में से एक मानती हैं. गीत के शब्द को किस धुन में गाया जाएगा यह तो संगीतकार बता सकता है लेकिन कविता के भाव को क्या अतिरिक्त स्पर्श चाहिये वह करिश्मा तो ऐन रेकॉर्डिंग में गायक या गायिका ही कर सकती है. वही करिश्मा जिसमें साँस और स्वर की जुबलबंदी होती है. सनद रहे ये करिश्मे कभी कभी भाग्य से नहीं होते इसे उस्तादों और गुरूजनों की सीख, रियाज़ और अपने काम के प्रति समर्पण से ही साधा जा सकता है..क्योंकि अंतत: गायक का गायन ही तो किसी गीत को कालजयी बनाने की पहली सीढ़ी होता है.आशा जी का ये गीत एक महान गायिका का दस्तावेज़ बन गया है.

एक बात अचानक ध्यान में आई कि  जिन गीतों का जिक्र हमने ऊपर किया वे सब स्व. शैलेन्द्रजी ने ही लिखे थे । हाँ तो बात चल रही थी गीत 'अब के बरस भेजो'  की । यह गीत आशा भोसले ने गाया है और इसका संगीत दिया है एस. डी. बर्मन यानि बर्मनदा ने । शुभा खोटे पर फिल्माये गये इस गीत में नायिका अपने पिता से शिकायत कर रही है कि अबके बरस भेजो भैया को बाबुल सावन में दीजो भिजाय रे.. आह, आशा जी ने कितने विकल स्वर में इसे गाया है । मानो इस गीत को गाते समय आशाजी सचमुच अपने पिता से शिकायत कर रही हों । कहते हैं कि जब आशाताई ने अपनी मरज़ी से शादी कर ली थी, और परिवार वालों से थोड़े दिनों के लिए दूर हो गई थीं तब उन्‍हें अपने इकलौते भाई हृदय नाथ की बहुत याद आती थी । और इस गाने की रिकॉर्डिंग में उन्‍होंने उन्‍होंने इन्‍हीं दिनों को याद किया था । उनका अपना निजी दर्द इसीलिए इस गाने में उतर आया
है ।

सबसे खास हैं इस गीत के अंतरे.. नायिका याद कर रही है अपने बचपन को, अपने गाँव को, और गाँव के उस सावन को जिसमें झूले पड़ते थे, और उन सब को याद करते ही उसकी आँखें छलक जाती है। देखिये नायिका क्या कह रही है ।
अम्बुआ तले फिर झूले पड़ेंगे
रिम झिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी तेरे आंगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आये रे

इन पंक्तियों को सुनते समय  हम सब की आँखो में गाँव, बचपन, झूले और सावन सब कुछ याद दिलवाने में आशाजी सफल रहती हैं। आगे देखिये गीत जब ज्यों ज्यों आगे बढ़ता है गंभीर होता जाता है। दूसरे अंतरे में नायिका अपने बाबुल से पूछ रही है, बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया छुड़ाई, बाबुल जी मैं तेरे नाजों की पाली फिर क्यों हुई मैं पराई? बीते रे जग कोई चिठिया ना पाती, ना कोई नैहर से आये रे...

जिन गानों में भावनाओं का उद्वेग होता है उनके संगीत की कलाबाजियों की ज़रूरत नहीं होती ।
इस गाने की वायलिन दिल को चीर डालती है । और आशा जी आवाज़ का कंपन आंखों को नम कर जाता है । आप पायेंगे कि गाने के ऑर्केस्‍ट्रा एकदम मद्धम और 'मिनिमम' है । और यही इस गीत की ताक़त है ।


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अब के बरस भेज  भैया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ
दीजो संदेशा भिजाय रे
अब के बरस..
अम्बुआ तले फिर झूले पड़ेंगी
रिम झिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी तेरे आंगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आये रे
अब के बरस...
बैरन जवानी ने छीने खिलोने
और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल थी मैं तेरे तेरे नाजों  की पाली
फिर क्यों  हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया ना पाती
ना कोई नैहर से आये रे
अब के बरस भेज बाबुल...

फिर से वही सवाल । आज की फिल्‍मों से राखी का त्‍यौहार ग़ायब क्‍यों हो गया है । चलिये छोडि़ए पर आपसे इतनी इल्तिजा तो कर ही सकते हैं कि आईये राखी को लेन-देन का त्‍यौहार ना बनाएं । राखी को प्रेम और विकलता का पर्व बनाएं ।

6 टिप्पणियाँ:

नयनसुख said...

बहुत ही मार्मिक गीत है
एकदम कातर कर देता है

अमिताभ मीत said...

अनमोल. अद्वितीय. मेरा दावा है कि आप जितनी बार, लगातार, ये गीत सुनायेंगे ....... मुझे हर बार रुलाने में सफल हो जायेंगे. कोई बस नहीं है मेरा .... बहुत बहुत शुक्रिया ..... आज सुबह सुबह रुला दिया. (मुझे गाड़ी चलाने के समय ये गीत सुनना वर्जित है)

रंजू भाटिया said...

बहुत ही जायदा पसंद है यह गाना जब भी सुना है रुला देते है यह गाना .....सुनवाने के लिए शुक्रिया

शोभा said...

बहुत ही सुन्दर। आपने भावुक कर दिया। इतना अच्छा लिखा है और गीत ने तो सोने मैं सुहागा कर दिया। बहुत बहुत साधुवाद।

शायदा said...

हर बार रुलाया इस गीत ने। कई दिन से सुन रही थी पहले ही, आज आपने भी सुनवा दिया, अच्‍छा किया।

नितिन | Nitin Vyas said...

अनमोल!!

 
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