Thursday, July 28, 2011

उनके स्वर ने रचा था सुगम संगीत का शास्त्र


रफ़ी साहब को श्रोता-बिरादरी की संगीतमय स्वरांजलि की दूसरी क़िस्त में आज फ़िर लाए हैं एक सुमधुर ग़ैर फ़िल्मी रचना. जब रफ़ी साहब की आवाज़ को सुनते हैं तो लगता है कहीं दूर से आ रहा ये स्वर हमारी आत्मा का सत्व क़ायम रखने आया है. रफ़ी साहब का एक गीत या ग़ज़ल सुन लो जीवन सँवरा हुआ सा लगता है.क्या विलक्षण गायकी है उनकी कि हम उनको सिर्फ़ सुर का आसरा लेकर मुहब्बत करने लगते हैं.

रफ़ी साहब के आरंभिक कालखण्ड को छोड़ दें तो उनका स्वर अंतिम गीत तक जस का तस सुनाई देता है. हाँ धुन या सिचुएशन या अभिनेता के मूड़ को रिफ़्लेक्ट करते हुए वे अपनी आवाज़ को करिश्माई तरीक़े से बदल ज़रूर लेते हैं. ग़ैर फ़िल्मी रचनाओं में भी वे अदभुत समाँ रचते हैं. कविता या शायरी की पावनता पर क़ायम रहते हुए वे कुछ ऐसा गा गये हैं जो सुगम संगीत की दुनिया के लिये एक शास्त्र सा बन गया है.

रफ़ी साहब तो चले गये लेकिन ..... हमारे दिलों में सुरीले संगीत की एक स्थायी अगरबत्ती जला गये हैं. मुलाहिज़ा फ़रमाएँ ये रचना....



गज़ल: दिल की बात कही नहीं जाती....
शायर: मीर तकी "मीर"
मौसिकी: ताज अहमद खान

रफी साहब का चित्र से साभार

1 टिप्पणियाँ:

विजयप्रकाश said...

बढ़िया गजल सुनाने के लिये धन्यवाद.

 
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