यूं तो बारिश के अनगिनत गीत हैं लेकिन 'रेन इस फ़ॉलिंग छमाछम छम' या 'ऑन द रूफ़ इन द रेन' जैसे अंग्रेजी की बैसाखी पकड़कर चलने वाले गीतों के ज़माने में अगर हम इस कम सुने गए गीत का जिक्र लेकर बैठे हैं जो इसका मतलब ये नहीं समझा जाए कि किसी अंधेरे कमरे में रोशनदान की तरह जीते हुए बूढ़े हैं हम । हमारे कहने का मतलब ये है कि ये बारिश का एक जवान गीत है जो आपको अहसास दिलाता है कि बिना शालीनता या भाषा खोए बिना भी बारिश की तरंग और उसकी मादकता को शब्दों में पिरोया जा सकता है । इससे ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बीतते हुए वक्त के साथ ज़माना मौसम के प्रति कितना सरोकार विहीन हो गया है । तभी तो आपके मन में भी ये ख्याल आ रहा है कि सादगी भरा ये गाना भला आज के जमाने में कैसे रचा जा सकता है ।
सलिल चौधरी की किसी कम्पोज़िशन को जब सुनने बैठें तो पाश्चात्य और लोक संगीत जैसे अपनी श्रेष्ठता पर होता है सलिल दा में महज़ एक संगीतकार नहीं पूरा एक संस्कृतिकर्मी जीवंत था. उनमें एक कवि, कथाकार, रंगकर्मी और संगीत समीक्षक हर लम्हा चैतन्य रहता था. सर्वहारा या आमजन के दु:ख-दर्द, मध्यमवर्गीय परिवेश की विवशताएँ और उनमें रहते हुए भी प्रसन्न रहने का जज़्बा सलिल दा की समझ और कलाकर्म में हमेशा किसी न किसी तरह अभिव्यक्त होता आया है.
जनपदीय परिवेश में जीवन के उदात्त भाव को गीतकार शैलेंन्द्र से बेहतर और कौन क़लमबध्द कर सकता है. इस गीत के शब्दों पर भी ज़रा ग़ौर कीजिये लगता है दो प्रेमियों को झिर झिर बरसते पानी को ज़िन्दगी की सबसे बड़ी दौलत मिल गई है.
परिवार फ़िल्म की इस बंदिश में बेमिसाल पूरबी ठाठ रोशन है. बरसते सावन को जैसे मन के भीतर कहीं गहरे को उतर जाने का माहौल गढ़ गई है सलिल दा की ये बंदिश;जैसे हमें बरसाती ओढ़ लेने को विवश कर रही हो.लता जी इस गीत में थोड़ी सॉफ़्ट हो गईं हैं क्योंकि यहाँ सुर का संगसाथ
देना है पहाड़ सी गंभीरता वाले हेमंतकुमार को.लताजी और हेमंत दा की ये जुगलबंदी बारिश की पावन बूँदो जैसी ही शफ़्फ़ाक़ है.हेंमत दा के मंद्र स्वर के साथ लता किस नोट से शुरू करें ये भी तो सलिल दा को ही सोचना पड़ा होगा . और क्या ख़ूब स्वर –पट्टी चुनी है उन्होंने कि शब्द भी स्पष्ट सुनाई देते हैं और धुन का रंग भी बरक़रार रहा है.
प्रील्यूड में मेंडोलिन और ताल वाद्य के रूप में बजता बाँगो ऐसा आभास देता है कि क्या कोई रूटीन चित्रपट गीत सुनाई देने वाला है लेकिन झिर झिर शब्द के साथ ही लताजी की आमद आनंद की सृष्टि कर देती है.अंतरे में भी मेंडोलिन है लेकिन यहाँ बाँसुरी भी जुड़ गई है .
इसी बीच जब लताजी को अंतरा शुरू करना है तो वे एक छोटे से आलाप ओ ओ ओ को छेड़तीं है और ये आलाप सुनने वाले को एक अपनापन सा देता है.ऐसे करिश्माई आलाप चित्रपट संगीत की अनमोल धरोहर हैं.किसी रोज़ सिर्फ़ इस तरह के गीतों पर एक पोस्ट रची जा सकती है श्रोता बिरादरी पर.हाँ यहाँ यह रेखांकित करना भी प्रासंगिक होगा कि इस तरह के आलाप संगीतकार ही रचता है,गीतकार नहीं. और ऐसे आलापों या मुरकियों या तानों से ही गीत अलंकृत होता है. संगीतकार महज़ वाद्यवृंद को इकठ्ठा करने वाला इवेंट मैनेजर नहीं एक विज़्युलाइज़र होता है...दृष्टा भी कह सकते हैं आप उसे.वह वाद्य,स्वर,कविता,कोरस,कालखण्ड,सिचुएशन,राग-रागिनी,और अभिनेता-अभिनेत्री सभी को ध्यान में रखकर संगीत रचता है.सलिल चौधरी एक दक्ष और समर्थ संगीतकार थे और उनकी ये बहुत सादा,गुनगुनाने को प्रोवोक करने वाली धुन उनकी प्रतिष्ठा में इज़ाफ़ा करती सी सुनाई देती है.
सोए अरमान और कई तूफानों के जागने जैसी शालीनता के साथ भी गाने रचे जा सकते हैं और लता-हेमंत के जैसी सादगी के साथ गाए जा सकते हैं । इस पर यकीन कीजिए । और ये मानकर चलिए कि ज़माना अपनी रफ्तार के साथ हमें और आपको मशीनी बनाता चला जा रहा है । अगर हमने इन गानों का हाथ नहीं पकड़ा तो हम भावनाओं से विहीन रोबो में तब्दील हो सकते हैं ।
ऐसे गीत जब हमारे कानों से विदा लेते हैं तब एक प्रश्न भी छोड़ते हैं कि क्या हम अपने जीवन की तमाम दौड़भाग के बीच कुदरत के नज़ारों का आनंद उठाने के लिये वक़्त निकाल पाते हैं....वक़्त तो निकला ही जा रहा है. क्या आप रोबो बन रहे हैं या इंसान बचे हुए हैं । अगर इस गाने को गुनगुना रहे हैं तो इसका मतलब समझिए ।
फिल्म परिवार 1956
आवाज़ें-लता हेमंत
गीतकार-शैलेंद्र । संगीतकार- सलिल चौधरी ।
अवधि-3-22
लता-
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे
सोए अरमान जागे
कई तूफान जागे
माने ना जिया मोरा सजना बिना ।।
ओ आजा के तोहे मेरा प्रीत पुकारे
तुझको ही आज तेरा गीत पुकारे
याद आई बीती बातें तुमसे मिलन की रातें
काहे को भूले मोहे अपना बना
झिर झिर ।।
हेमंत कुमार
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे
सोए अरमान जागे
कई तूफान जागे
बरखा ना भाए गोरी तेरे बिना
तेरे घुंघराले काले बालों से काली,
रात ने आज मेरी नींद चुरा ली
लता--तोसे ही प्यार करूं
हेमंत--तेरा इंतज़ार करूं
दोनों--तेरे बिना झूठा मेरा हर सपना
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे ।।
Sunday, July 20, 2008
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे -लता हेमंत शैलेंद्र और सलिल चौधरी के साथ रसवर्षा
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 8:48 AM
श्रेणी झिर झिर बदरवा बरसे, फिल्म परिवार
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15 टिप्पणियाँ:
बाहर रिमझिम बारिश की फुहार ...और यह लेख पढ़ना अच्छा लगा .पर गाना सुनाई नही दे रहा है ..एक बार चेक करे ..
रंजू जी गाना तो बढिया बज रहा है । लगता है आपके पास फ्लैश प्लेयर नहीं है । यहां से डाउनलोड करके इंस्टॉल करें ।
लता और हेमंत दा का ये युगल गीत जितना मन भावन उतना ही सुंदर आपका बखान है, वाह फ़िर वही बात कहता हूँ जो हर रविवार कहता हूँ की रोज रविवार क्यों नही होता
आज तो इंटरनेट पर बैठना सफल हो गया.... बाहर की तेज़ उमस भरी गर्मी से आते ही रिमझिम बारिश के गीत ने मस्त कर दिया.. बहुत बहुत शुक्रिया...
सच है रविवार हर रोज़ हो या हर दिन को रविवार जैसी ही महत्ता मिले :)
madhuram..madhuram..bahut mun bhayaa..
बरसात के इस मौसम में इस गीत को सुनकर मन प्रसन्न हो गया । सच ही कहा है कि अगर इन गीतों के माध्यम से अपनी भावनाओं को जिंदा नहीं रखा तो आगे बडी मुश्किल होगी ।
सुन्दर गीत के साथ सलिलदा के संगीत की अलग परिपेक्ष्य में जानकारी देने के लिये बहुत धन्यवाद ।
ऐसा युगल गीत इसके बाद बस्स "डोलकर दरिया चा राजा " कोळी गीत : सँगीत ह्र्दयनाथ मँगेशकर वाला ही सुना ~ क्या खूब गीत बँधा है सलिलदा के ताने बानोँ ने ..सुनवाने का बहोत बहोत शुक्रिया
क्या मजबूरी है, इधर TV पर मेरा साया फ़िल्म का अनश्वर गीत बज रहा है- नैनों में बदरा छाये , बिजली सी चमके हाये---
और ऊधर आपने छेडा है - सावन का सूर-
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे - हो काले काले -
बरसाती ओढने का नही ,खुल के बरसात मे भीगने का मन कर रहा है.
मेहरबानी कर इन गानो के राग का भी ज़िक्र किया किजीये, आप तो जानकार है ही.(जहां संभव हो)
पूरा भीगने के बाद एक और टिप्पणी की इजाज़त चाहूंगा.
किन शब्दों में और कैसे धन्यवाद दूँ ?
अच्छा चलिये, नहीं देता, बस ऎसे ही अपर्याप्य
गीत्त सुनने को मिलें तो क्या कहने ?
दिलीप भाई
आपने राग के ख़ुलासे का जो इसरार किया है वह अच्छा है .लेकिन श्रोता बिरादरी के ज़रिये प्रयास ये है कि जो भी जानकारी जारी हो वह सटीक हो क्योंकि लिखा हुआ अंतत: दस्तावेज़ीकृत हो जाता है.जहाँ राग की जानकारी स्पष्ट होगी ; उसका ज़िक्र ज़रूर होगा(देखें पहली पोस्ट : रानी रूपमती :उड़ जा भँवर)
समीक्षित गीत पूरब के लोक-संगीत पर आधारित है.श्रोता-बिरादरी शास्त्रीय संगीत के जानकार के संपर्क में भी है , जब भी सुस्पष्ट जानकारी होगी ज़रूर उल्लेख करेंगे.
और हाँ श्रोता-बिरादरी का उद्देश्य संगीत का सुरीलापन बरक़रार रखना है शास्त्रीयता में ज़्यादा उलझना नहीं चाहते हम ,गीतकारों,संगीतकारों,संगतकारों को उनका ड्यू मान भी दिलवाना है जो अमूमन गायक/गायिका की स्वर-आभा में अनकहा रह जाता है.
ये आग्रह दोहराना चाहेंगे कि अपने कमेंट्स में यदि हमारे कहे के अलावा आपके पास राग , वाद्य विशेष ,साइड रिदम,कविता,गायकी के बारे में कुछ अतिरिक्त है तो उसे ज़रूर लिखें,इससे ये सिलसिला और समृध्द होगा.
महज़ धन्यवाद,साधुवाद,शुभकामना,बधाई से इतर कुछ हो तो सार्थकता बढ़ेगी हमारे प्रयास की.ये भी इसलिये कि सारे साधुवद के हक़दार तो हमारे महान संगीतकार,गायक और गीतकार हैं..आपका सारा प्रतिसाद उन्हीं के खाते में जमा होना चाहिये...यूनुस भाई और सागर भाई भी मेरी इस बात से सहमत होंगे ऐसा मानकर अपनी बात को विराम देता हूँ.
आते रहें श्रोता-बिरादरी की बिछात पर
हर रविवार,सुबह नौ बजे.
सुन्दर व मधुर गीत सुनवाने के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती
आपका आग्रह कबूल. अपने तंई कोशिश करेंगे की कुछ ना कुछ जोडा जा सके, तो सार्थकता बढेगी.
वैसे हर श्रोता मुखर हो यह हर वक्त हो नही सकेगा. मगर हर श्रोता को मन की बात कहने का यह एक खूबसूरत सा ज़रिया होगा, जो भावनाएं मन मे उमडेगी उससे साथी श्रोताओं से बांटने से उन महान संगीतकारों, गायकों, एवम गीतकारों के स्रजन की सार्थकता साबित होगी.
हालांकि, जो कुछ भी लिखा जा रहा है, अपने आप मे संपूर्ण है, एक encyclopedia की तरह.
Another Sunday, another sweet song with wonderful explanation and strong language.Both Didi and Hemantda have sung beautifully.
Thanks for the selection/presentation.
Wish every day is Sunday!!
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
सुरीले रविवार के लिये धन्यवाद.ऐसा अप्राप्य गीत यहां नहीं मिलेंगे तो कहां मिलेंगे?
संजय भाई, आपने प्रेरित किया, और हम सलिल चौधरी पर कुछ लिखने का दुस्साहस कर बैठे.
सलिल चौधरी..
एक प्रयोगशील सन्गीतकार.अपनी विलक्षण शैली मे अनेकानेक , विविध रंगों की छटा लिये स्रुजन करता एक प्रतिभाशाली ,क्रान्तिकारी कलाकार!!!
देश विदेश की शास्त्रीय सन्गीत मे निबद्ध अनोखी रचनाओं का मनोहारी गुंजन जब हमारे मानस पटल पर अन्कित होता है , तो दाद देने को जी चाह्ता है.
दो बीघा ज़मीन फ़िल्म का वह थीमसांग लें बानगी के तौर पर--
अपनी कहानी छोड जा, कुछ तो निशानी छोड जा, मौसम बीता जाये..
यह गीत की धुन भले ही रशियन रेड आर्मी के मार्चिंग सोंग से प्रेरित हो कर लिखी है, मगर उसमें हमारी गांव की मिट्टी की खुशबू ज़रूर आती है.’हरीयाला सावन ढोल बजाता आया ’में मन्ना दा और लताजी ने लोकसंगीत पर उनकी पकड कितनी मज़बूत थी यह साबित किया.(घिर घिर बदरवा बरसे -- भी )
इस पर अपने ब्लोग पर आगे कुछ और पोस्ट किया है. दिवानों को आमन्त्रण है, हौसला अफ़ज़ाई के लिये..
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