आइये पहले आज श्रोता-बिरादरी के सफ़े पर कैफ़ी आज़मी साहब के शब्दों को पढ़ लें....
आज सोचा तो आँसू भर आए
मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए
हर क़दम पर उधर मुड़ के देखा
उनकी महफ़िल से हम उठ तो आए
रह गई ज़िन्दगी दर्द बन के
दर्द दिल में छुपाए-छुपाए
दिल की नाज़ुक रगें टूटतीं हैं
याद इतना भी कोई न आए
सन १९७३ मे प्रकाशित तस्वीर हँसते ज़ख़्म की ग़ज़ल है ये.
छोटी बहर की इस ग़ज़ल का शब्दांकन कैफ़ी आज़मी साहब के क़लम से हुआ है जो चेतन आनंद के बेहद पसंदीदा शायर रहे हैं .चेतन जी ने उनसे फ़िल्म हक़ीक़त में भी नग़मानिगारी करवाई थी.महज़ चार अशाअर की इस ग़ज़ल को सादे काग़ज़ पर लिखा पढ़ें तो आप इसे एक अच्छी ग़ज़ल कह कर आगे बढ़ जाएँ लेकिन जब मदन मोहन के संगीत में बुनी धुन से लता मंगेशकर की आवाज़ आपके कानों में पहुँचती है तो आपको शायरी की ताक़त दो गुनी सुनाई देती है.
१४ जुलाई को संगीतकार मदन मोहन की पुण्यतिथि आती है. इसी महीने ने हमसे मोहम्मद रफ़ी जैसा महान गायक भी छीना था.ये ज़िक्र इसलिये की हमारी जानकारी के मुताबिक मदन मोहन और रफ़ी साहब की बरसी पर सबसे ज़्यादा संगीत कार्यक्रम दुनिया भर के छोटे बड़े शहरों में होते हैं . शायद ये इन दोनो सुर-सर्जकों का कमाल ही है कि वह संगीत-प्रेमियों के दिलोदिमाग़ में हमेशा बने रहते हैं. बहरहाल अब ’आज सोचा तो आँसू भर आए’ की बात हो जाए.
लताजी-मदनजी का संग-साथ जब भी चित्रपट गीतों को मिला है तब पूरा संगीत एक रूहानी दुनिया में तब्दील सा हो जाता है.हम इस पत्थर के संसार में कुछ मुलायम हो जाते हैं और कविता और संगीत की सच्चाई हमारे संसारी मन पर तारी हो जाती है. जब जब भी लता-मदन ग़ज़ल को रचते हैं लगता है दुनिया के ये दो बेजोड़ कारीगर किसी तपस्या से इस रचना को शक़्ल दे लाए हैं.मदन मोहन का संगीत गाते हुए लता इमोशन के स्तर पर शीर्ष पर होतीं हैं.
मदन मोहन का वाद्यवृंद डिसिप्लिन की पराकाष्ठा पर है. पहले अंतरे में गिटार के आधार पर इलेक्टॉनिक वाद्य को चीरती उस्ताद रईस ख़ाँ की सितार जैसे लता जी द्वारा गाए जाने वाले मतले को एक सुरीली ज़मीन बख़्शती है.मदन मोहन , लता और रईस खाँ एक संगीत के ज़रिये एक अदभुत वीराने को सजा रहे हैं.वेदना जैसे चट्टानों से झर कर इंसान के कोमल मन में आ समाई है.विरहणी की चित्कार मानो इस ग़ज़ल को मुस्कुराते हुए निभाना चाह रही है.मदन जी इस फ़िल्म का पूरा इम्पैक्ट बनाए रखने के लिये एक इंटरल्यूड में इसी फ़िल्म के दूसरे बेजोड़ गीत तुम जो मिल गए हो की धुन को भी ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है. दर्द को जीते हुए मुस्कुराने को शऊर देती ये ग़ज़ल मदन-लता की जुगलबंदी का सुनहरा सोपान है.
8 टिप्पणियाँ:
this is test comment ..
सुनने वालों का ध्यान चाहेंगे:
गाना शुरू हुआ है सितार के आलाप से.फ़िर कोई वाद्य नहीं बजा है और शुरू हुई है ये ग़ज़ल लताजी की आवाज़ में ...तो ये जो शुरूआत है जहाँ कोई संगीत नहीं (आज सोचा तो )बस ये शुरूआत ही लताजी को दूसरे गायकों से अलग कर देती है. शब्द का अहसास जिस तरह से वे जीती है वह एक करिश्मा है.यहीं से तय कर देती हैं वे मदन मोहन के संगीत की क़ामयाबी.
मदनमोहन ने लता जी के लिए एक से बढ़कर एक चुनिंदा compositions की हैं जिसे लता जी ने निभाया भी कमाल है। हमेशा की तरह एक बेहतरीन पोस्ट !
क्या कहूँ हँसते ज़ख्म के सभी गीत मेरे लिए अमृत समान हैं, ये नगमा तो बस.....आपने बहुत ही खूब प्रस्तुति दी है
दिल की नाज़ुक रगें टूटतीं हैं
याद इतना भी कोई न आए
वाकई आज सुना तो आंसू भर आए....
काश कि रविवार रोज हो :)
Beautiful song, wonderful description and powerful language.
Sunday sudhar gaya saab.
Shukriya, Dhanyavaad.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
सुंदरतम।
एक ही गीत में दो अप्रतीम गानो की दावत-
आज सोचा तो आसूं भर आये
और
तुम जो मिल गये हो , तो ये लगता है--
रफ़ी साहब का एक one of the most difficult song to sing.
रफ़ी साहब की पुण्यतिथी पर कुछ ऐसा ही कालजयी गाना हो जाये तो बहार आ जाये.
यह राग कौनसा है? जयदेव जी को भी यह राग बडा पसन्द था.
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