Thursday, July 31, 2008
रफी साहब की बरसी और श्रोता-बिरादरी की एक खास पेशकश--एक अनमोल गाना
सिनेमा के संगीत ने हमे भावुक बने रहने की बार बार याद दिलाई है.ज़िन्दगी के सदमों को सहते हुए ग़म ग़लत कैसे किया जाए इसके लिये कई गीत रचे गए हैं.
इन गीतों से भारतीय जनमानस ने अपने ग़मों से निजात पाने के फ़ार्मूले गढ़े हैं
श्रोता-बिरादरी के इस विशेष सोपान में हम महान गायक मोहम्मद रफ़ी साहब को ख़िराजे अक़ीदत पेश करने एकत्र हुए हैं .रफ़ी साहब के बारे में जितना लिखना चाहे कम होगा.
विख्यात स्तंभकार श्री अजातशत्रुजी को यहाँ कोट करते हुए लगता है कि इससे अच्छी बात रफ़ी साहब के बारे में और क्या क्या की जा सकती है.
अजातशत्रुजी कहते हैं.....रफ़ी के गीतों को हम सुनते हैं तो उनके कमाल पर ख़ुशी से आँखें भीगने लगतीं हैं.ऐसा प्रतीत होता है कि वे प्रकृतिरूपी माता के भोले बच्चे हैं.जब वे गाने बैठते हैं तो इस माँ को ख़ुश करने के लिये अच्छा से अच्छा गा जाते हैं और माँ कि कृपा देखिये वह इस बालक से सर्वोत्तम गवा ले जातीं हैं.यह गुलूकार दुनिया में नहीं लेकिन सदा याद आता रहेगा.दिलों को लूटने वाले इस बाज़ीगर की कलाकारी को हिन्दुस्तानी माइकल जैक्सन समझ लें तो रामदुहाई.
फ़िल्म शराबी में रफ़ी साहब की गाई हुई ये नज़्म ज़िन्दगी की तल्ख़ियों की तर्जुमानी लगती है. रफ़ी साहब की आवाज़ की रेंज बेमिसाल थी लेकिन प्लैबैक सिंगिंग के लिये जहाँ जहाँ जो जो भी माफ़िक और माकूल हुआ रफ़ी साहब ने पेश किया.इस गीत को सुनें तो लगता है रफ़ी साहब ने अपने कंठ के खरज का पाताल छू लिया है. मुझे ले चल …ये मुखड़ा गाते वक़्त आवाज़ का सोज़ तो देखिये....सारे जहान का दर्द यहाँ उकेर लाए हैं रफ़ी साहब. हमें रफ़ी साहब को सुनते हुए तीन बातों पर विशेष रूप से ग़ौर करना चाहिये...एक...वे तलफ़्फुज़ (उच्चारण) की डिक्शनरी थे. दो... उनके गाने में कविता का सौंदर्य या दु:ख बनावटी नहीं लगता था.तीन उनकी आवाज़ में कभी भी किसी भी गाने में आवाज़ में किसी तरह का स्ट्रेस सुनाई नहीं देता. गायक संगीतकार और गीतकार के यश में बढ़ोत्तरी करता है....रफ़ी साहब ने जिस जिस भी गीतकार/संगीतकार के लिये गाया वे निहाल हो गए. उनकी धुनें अमर हो गईं...गीत लोकगीत बन गए.
संगीतकार मदनमोहन ने इस गीत में जिस तन्मयता से रफ़ी साहब को गवाया है वह यहाँ लिखने से ज़्यादा महसूसने की चीज़ है. कम्पोज़िशन में जिस तरह का कमाल मदनजी ने किया है वह सिचुएशन के प्रभाव को समृध्द करता है .पूरे गीत का मूड क्या होगा ये शुरूआती आलाप से ही व्यक्त हो गया है. आलाप एक तरह से गाने की फ़ायनल डिज़ाइन का ले-आउट है...वॉयलिन की पैरहन में रफ़ी साहब का सूफ़ियाना स्वर एक तिलिस्म की मानिंद बाहर आता है.
रिदम को देखिये बस एक लयकारी के लिये डफ़ या बड़े ड्रम की थपकी भर है. टीप में टेरती स्टिक्स हैं जो ताल के वजूद को साबित कर ने लिये विशिष्ट अंतराल पर टिक टिक कर रही है.
नायक के ग़म में इज़ाफ़ा करने के लिये इंटरल्यूड में जो वाद्य बजा है वह वॉयलिन नहीं तार-शहनाई है.इसे ग्रुप-वॉयलिन्स का आसरा वातावरण में दु:ख को विस्तार दे रहा है. हमारा मानना है कि ये नज़्म चाहे कम सुनी गई हो लेकिन इसका कम्पलीट इम्पैक्ट देखें तो फ़िल्म हक़ीक़त में कैफ़ी साहब की नज़्म मैं ये सोचकर तेरे दर से उठा था से ज़्यादा वज़नदार है.इस नज़्म को सुनकर लगता है क़ुदरत नें मदनमोहन जी से बेहतरीन कम्पोज़ करवा कर रफ़ी साहब से बेजोड़ गवा लिया है ;क्या ऐसे गीतों को करिश्मा कहना भाषा का अतिरेक होगा.
इस गाने को राजेंद्र कृष्ण ने लिखा है । राजेंद्र कृष्ण की ख़ासियत ये थी कि वे अकसर फिल्में इस शर्त पर स्वीकार करते थे कि फिल्म की पटकथा और गाने दोनों उनके होंगे । आमतौर पर हम राजेंद्र कृष्ण को एक बेहद गंभीर और सेन्टीमेन्टल गानों का शायर मानते हैं पर वो बेहद मज़ाकिया इंसान भी थे । कमाल के बंदे । इस गाने के एक एक लफ्ज़ में बेक़रारी घुली हुई है । रफी साहब ने इस गाने के जज्बात को बेहद कुशलता से निभाया है । इस गाने में किसी भूले बिसरे गुजरे वक्त की बात की जा रही है । खास बात ये है कि जिंदगी में कभी शराब ना पीने के बावजूद रफी साहब ने अपने कुछ गानों में नशे की तरंग को बखूबी निभाया है । फिल्म संगीत के क़द्रदान इस देवदासी नग्मे को रफी साहब के सबसे अनमोल गानों में गिनते हैं । शायरी के नज़रिये से भी ये कोई फिल्मी गीत कम है और मुहब्बत की एक अनमोल नज़्म ज्यादा है । राजेंद्र कृष्ण, मदनमोहन और इन सबसे ऊपर रफ़ी साहब को हमारा बारंबार सलाम ।
मुझे ले चलो, आज फिर उस गली में
जहाँ पहले-पहले, ये दिल लड़खड़ाया
वो दुनिया, वो मेरी मोहब्बत की दुनिया
जहाँ से मैं बेताबियाँ लेके आया
मुझे ले चलो
जहाँ सो रही है मेरी ज़िंदगानी
जहाँ छोड़ आया मैं अपनी जवानी
वहाँ आज भी एक चौखट पे ताज़ा
मोहब्बत के सजदों की होगी निशानी
मुझे ले चलो।।
वो दुनिया जहाँ उसके नक़्श\-ए\-कदम हैं
वहीं मेरी खुशियाँ, वहीं मेरे ग़म हैं
मैं ले आऊँगा खा़क उस रहगुज़र की
के उस रहगुज़र के तो ज़र्रे सनम है
मुझे ले चलो
वहाँ एक रँगीं चिलमन के पीछे
चमकता हुआ उसका, रुख़सार होगा
बसा लूँगा आँखों में वो रोशनी मैं
यूँ ही कुछ इलाज\-ए\-दिल\-ए\-ज़ार होगा
मुझे ले चलो \
मुझे ले चलो, आज फिर उस गली में
जहाँ पहले\-पहले, ये दिल लड़खड़ाया
वो दुनिया, वो मेरी मोहब्बत की दुनिया
जहाँ से मैं बेताबियाँ लेके आया
मुझे ले चलो
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 8:50 AM 14 टिप्पणियाँ
श्रेणी फिल्म शराबी, मदनमोहन, मोहम्मद रफी, रफी
Wednesday, July 30, 2008
कल पहली बार श्रोता बिरादरी का विशेष संस्करण-रफ़ी साहब की याद.
31 जुलाई को जिस शिद्दत से पूरी दुनिया अज़ीम गुलूकार मोहम्मद रफ़ी साहब को याद करती है वह हमें चौंकाता नहीं है क्योंकि वे थे ही इसके सच्चे हक़दार. जिस तरह की और जितनी आकस्मिक मृत्यु रफ़ी साहब को मिली वह साबित करती है कि वे बड़ी पुण्यवान आत्मा थे. उनकी सादा तबियत और गायकी का विलक्षण तेवर उन्हें उनके जीवन काल में ही एक स्कूल में तब्दील कर चुका था.
श्रोता-बिरादरी रफ़ी साहब को अपनी सुरांजली भेंट कर अभिभूत है. कोशिश रहेगी कि आगे भी अपने नियमित क्रम यानी रविवार के अलावा भी किसी बेजोड़ गायक,गीतकार,संगीतकार को याद करने का मौक़ा आया तो श्रोता-बिरादरी अपना विशेष संस्करण लेकर हाज़िर होगी. दर-असल इस शुरूआत का श्रेय भी आप सभी बिरादरों से मिले प्रतिसाद को ही जाता है जिसने हमें इस नये सोपान को रचने के लिये लगभग विवश ही कर दिया.
तो कल सुबह समय वही...तक़रीबन नौ बजे...31 जुलाई...रफ़ी साहब की 28वीं बरसी.
श्रोता बिरादरी एक विशेष गीत लेकर हाज़िर होगी. धुन,शायरी और सबसे बढ़कर गायकी के लिहाज़ से एक दुर्लभ गीत.रफ़ी परम्परा को आपसे रूबरू करवाता.
और हाँ कोशिश करें कि आप भी पूरे दिन रफ़ी साहब के गीत ही सुनें...
वही इस सर्वकालिक महान गायक के प्रति हम संगीतप्रेमियों की सच्ची और
और खरी श्रध्दांजली होगी.
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 8:23 PM 2 टिप्पणियाँ
श्रेणी पुण्यतिथि, मोहम्मद रफ़ी
Sunday, July 27, 2008
हरियाला सावन ढोल बजाता आया--सावन का एक सुनहरा गाना ।
अगर हिन्दी के दस सबसे मधुर वर्षा/सावन गीतों का जिक्र हो तो उसमें सबसे पहला नाम जिस गीत का लिया जायेगा वह सलिल दा ( चौधरी ) का "हरियाला सावन ढ़ोल बजाता आया" का ही होगा। अपनी पहली संगीतबद्ध फिल्म ( और लिखित भी) में ही सलिलदा ने बता दिया था कि उनमें कितनी काबिलियत है । खैर.. जिक्र हो रहा था वर्षा गीत का, पुराने गीतों के प्रशंसक अच्छी तरह जानते हैं कि इस गीत की पहली पंक्ति भी अगर कान में पड़ जाये तो पूरा गीत सुने बिना मन नहीं मानता ।
इस गाने के चित्रांकन में मुझे एक बहुत अच्छी बात यह लगी कि इतने मधुर गीत को आम हिन्दी फिल्मों की तरह नायक नायिका पर फिल्माने के बजाय खेतों में झूमते किसानों, झूले पर झूलती नायिका और अपने बच्चे को झुलाती माँ आदि पर फिल्माया है । ये रहा इस गाने का यूट्यूब वीडियो । अगर आप ब्रॉडबैन्ड पर देख रहे हैं या डायलअप कनेक्शन पर भी तो एक बार प्ले करके पॉज़ लगाईये और फिर स्ट्रीमिंग होने दीजिए । जब स्ट्रीमिंग हो जाए तो आराम से देखिए ।
इस गीत में शुरुआत में मेंडोलिन के प्रयोग के बाद में वाद्य यंत्रों का प्रयोग बहुत कम लगता है, यानि कलाकारों की आवाज पर वाद्य-यंत्र हावी होते हुए नहीं दिखते, हाँ ढोलक का प्रयोग पूरे गीत में है और बहुत ही सुंदर है । ये वैसी ही ढोलक है जैसी हमारे लोकगीतों में हुआ करती है ।
पिछली पोस्ट में हमने बताया था कि आलाप संगीतकार ही रचता है, गीतकार नहीं। बिल्कुल उसी तरह गीत में भी सलिल दा ने बहुत ही सुंदर आलाप रचा है और आलाप का प्रयोग इतनी सुंदरता से किया गया है कि क्या कहें, जब आप इस गीत को सुनेंगे और अन्जाने में गुनगुनाने लगेंगे तब आपको पता चल ही जायेगा। ध्यान दीजिये आप गीत की पंक्तियाँ नहीं आलाप ही गुनगुना रहे हैं।
गीत की शुरुआत में हुड़ तक तक कहते किसान और हरियाला सावन ढ़ोल बजाता... कहती हुई गृहिणी जब गीत की एक के बाद एक लाईने गाते हैं तो सुनने वाले पहले पैरा ( पहली बार) को तो सुनते हैं पर अगली बार ये लाइनें आती है बरबस वे भी गुन गुनाने लगते हैं...या याया या या या याऽऽ
मस्ती भरे इस गीत में एक आशावाद झलकता है, जब महिला कहती है धरती पहनेगी हरी चुनरिया बन के दुल्हनिया और किसान कहता है एक लगन लगी.. और जब एक किसान, मायूस बैठे नायक को यह गाकर कहता है बैठना तू मन मारे- आ गगन तले क्या पवन चले.. .
अंतिम पंक्तियों में नायिका सुख चैन की कामना करती हुई कहती है ऐसे बीज बिछा रे... सुख चैन उगे दुख दर्द मिटे.. नैनों में नाचे रे सपनों का धान हरा..
इस गीत को ध्यान से सुनने पर हमें आभास होता है मानों बाहर बारिश हो रही है और हम खेतों में हरी चुनरिया पहने धरती पर नाच रहे हों.. तब यह गीत आध्यात्मिक सी अनूभुति देता दिखता है।
गीत पूरा होने के बाद सुनने के बाद श्रोता को यही लगता रहता है कि "नहीं सलिलदा मन अभी नहीं भरा", काश सलिलदा इस गीत में कुछ पैरा और जोड़ देते..!!!
ये रहे इस गाने के बोल---
हरियाला सावन ढोल बजाता आया
धिन तक तक मन के मोर नचाता आया ।।
मिट्टी में जान जगाता आया
धरती पहनेगी हरी चुनरिया
बनके दुल्हनिया
एक अगन बुझी एक अगन लगी
मन मगन हुआ एत लगन लगी
बैठ ना तू मन मारे
आ गगन तले देख पवन चले
आजा मिलजुल के गाएं
जीवन का गीत नया ।
हरियाला सावन ढोल बजाता आया ।।
आज बीज बिछा रे
सुख चैन उगे दुख दर्द मिटे
नैनों में नाचे रे
सपनों का धान हरा ।
श्रोता-बिरादरी का अगला अंक रविवार की बजाय गुरूवार को आयेगा । 31 जुलाई गुरूवार को है मो.रफ़ी की पुण्यतिथि ।
आवाज़ की दुनिया के इस फरिश्ते को श्रोता-बिरादरी सलाम करेगा । इसलिए गुरूवार को आना मत भूलिएगा ।
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 7:31 AM 4 टिप्पणियाँ
श्रेणी दो बीघा ज़मीन, हरियाला सावन
Sunday, July 20, 2008
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे -लता हेमंत शैलेंद्र और सलिल चौधरी के साथ रसवर्षा
यूं तो बारिश के अनगिनत गीत हैं लेकिन 'रेन इस फ़ॉलिंग छमाछम छम' या 'ऑन द रूफ़ इन द रेन' जैसे अंग्रेजी की बैसाखी पकड़कर चलने वाले गीतों के ज़माने में अगर हम इस कम सुने गए गीत का जिक्र लेकर बैठे हैं जो इसका मतलब ये नहीं समझा जाए कि किसी अंधेरे कमरे में रोशनदान की तरह जीते हुए बूढ़े हैं हम । हमारे कहने का मतलब ये है कि ये बारिश का एक जवान गीत है जो आपको अहसास दिलाता है कि बिना शालीनता या भाषा खोए बिना भी बारिश की तरंग और उसकी मादकता को शब्दों में पिरोया जा सकता है । इससे ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बीतते हुए वक्त के साथ ज़माना मौसम के प्रति कितना सरोकार विहीन हो गया है । तभी तो आपके मन में भी ये ख्याल आ रहा है कि सादगी भरा ये गाना भला आज के जमाने में कैसे रचा जा सकता है ।
सलिल चौधरी की किसी कम्पोज़िशन को जब सुनने बैठें तो पाश्चात्य और लोक संगीत जैसे अपनी श्रेष्ठता पर होता है सलिल दा में महज़ एक संगीतकार नहीं पूरा एक संस्कृतिकर्मी जीवंत था. उनमें एक कवि, कथाकार, रंगकर्मी और संगीत समीक्षक हर लम्हा चैतन्य रहता था. सर्वहारा या आमजन के दु:ख-दर्द, मध्यमवर्गीय परिवेश की विवशताएँ और उनमें रहते हुए भी प्रसन्न रहने का जज़्बा सलिल दा की समझ और कलाकर्म में हमेशा किसी न किसी तरह अभिव्यक्त होता आया है.
जनपदीय परिवेश में जीवन के उदात्त भाव को गीतकार शैलेंन्द्र से बेहतर और कौन क़लमबध्द कर सकता है. इस गीत के शब्दों पर भी ज़रा ग़ौर कीजिये लगता है दो प्रेमियों को झिर झिर बरसते पानी को ज़िन्दगी की सबसे बड़ी दौलत मिल गई है.
परिवार फ़िल्म की इस बंदिश में बेमिसाल पूरबी ठाठ रोशन है. बरसते सावन को जैसे मन के भीतर कहीं गहरे को उतर जाने का माहौल गढ़ गई है सलिल दा की ये बंदिश;जैसे हमें बरसाती ओढ़ लेने को विवश कर रही हो.लता जी इस गीत में थोड़ी सॉफ़्ट हो गईं हैं क्योंकि यहाँ सुर का संगसाथ
देना है पहाड़ सी गंभीरता वाले हेमंतकुमार को.लताजी और हेमंत दा की ये जुगलबंदी बारिश की पावन बूँदो जैसी ही शफ़्फ़ाक़ है.हेंमत दा के मंद्र स्वर के साथ लता किस नोट से शुरू करें ये भी तो सलिल दा को ही सोचना पड़ा होगा . और क्या ख़ूब स्वर –पट्टी चुनी है उन्होंने कि शब्द भी स्पष्ट सुनाई देते हैं और धुन का रंग भी बरक़रार रहा है.
प्रील्यूड में मेंडोलिन और ताल वाद्य के रूप में बजता बाँगो ऐसा आभास देता है कि क्या कोई रूटीन चित्रपट गीत सुनाई देने वाला है लेकिन झिर झिर शब्द के साथ ही लताजी की आमद आनंद की सृष्टि कर देती है.अंतरे में भी मेंडोलिन है लेकिन यहाँ बाँसुरी भी जुड़ गई है .
इसी बीच जब लताजी को अंतरा शुरू करना है तो वे एक छोटे से आलाप ओ ओ ओ को छेड़तीं है और ये आलाप सुनने वाले को एक अपनापन सा देता है.ऐसे करिश्माई आलाप चित्रपट संगीत की अनमोल धरोहर हैं.किसी रोज़ सिर्फ़ इस तरह के गीतों पर एक पोस्ट रची जा सकती है श्रोता बिरादरी पर.हाँ यहाँ यह रेखांकित करना भी प्रासंगिक होगा कि इस तरह के आलाप संगीतकार ही रचता है,गीतकार नहीं. और ऐसे आलापों या मुरकियों या तानों से ही गीत अलंकृत होता है. संगीतकार महज़ वाद्यवृंद को इकठ्ठा करने वाला इवेंट मैनेजर नहीं एक विज़्युलाइज़र होता है...दृष्टा भी कह सकते हैं आप उसे.वह वाद्य,स्वर,कविता,कोरस,कालखण्ड,सिचुएशन,राग-रागिनी,और अभिनेता-अभिनेत्री सभी को ध्यान में रखकर संगीत रचता है.सलिल चौधरी एक दक्ष और समर्थ संगीतकार थे और उनकी ये बहुत सादा,गुनगुनाने को प्रोवोक करने वाली धुन उनकी प्रतिष्ठा में इज़ाफ़ा करती सी सुनाई देती है.
सोए अरमान और कई तूफानों के जागने जैसी शालीनता के साथ भी गाने रचे जा सकते हैं और लता-हेमंत के जैसी सादगी के साथ गाए जा सकते हैं । इस पर यकीन कीजिए । और ये मानकर चलिए कि ज़माना अपनी रफ्तार के साथ हमें और आपको मशीनी बनाता चला जा रहा है । अगर हमने इन गानों का हाथ नहीं पकड़ा तो हम भावनाओं से विहीन रोबो में तब्दील हो सकते हैं ।
ऐसे गीत जब हमारे कानों से विदा लेते हैं तब एक प्रश्न भी छोड़ते हैं कि क्या हम अपने जीवन की तमाम दौड़भाग के बीच कुदरत के नज़ारों का आनंद उठाने के लिये वक़्त निकाल पाते हैं....वक़्त तो निकला ही जा रहा है. क्या आप रोबो बन रहे हैं या इंसान बचे हुए हैं । अगर इस गाने को गुनगुना रहे हैं तो इसका मतलब समझिए ।
फिल्म परिवार 1956
आवाज़ें-लता हेमंत
गीतकार-शैलेंद्र । संगीतकार- सलिल चौधरी ।
अवधि-3-22
लता-
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे
सोए अरमान जागे
कई तूफान जागे
माने ना जिया मोरा सजना बिना ।।
ओ आजा के तोहे मेरा प्रीत पुकारे
तुझको ही आज तेरा गीत पुकारे
याद आई बीती बातें तुमसे मिलन की रातें
काहे को भूले मोहे अपना बना
झिर झिर ।।
हेमंत कुमार
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे
सोए अरमान जागे
कई तूफान जागे
बरखा ना भाए गोरी तेरे बिना
तेरे घुंघराले काले बालों से काली,
रात ने आज मेरी नींद चुरा ली
लता--तोसे ही प्यार करूं
हेमंत--तेरा इंतज़ार करूं
दोनों--तेरे बिना झूठा मेरा हर सपना
झिर झिर झिर झिर बदरवा बरसे हो कारे कारे ।।
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 8:48 AM 15 टिप्पणियाँ
श्रेणी झिर झिर बदरवा बरसे, फिल्म परिवार
Saturday, July 19, 2008
रविवारीय सुबह में झरेंगी गीत/संगीत की मनभावन बूँदें.
अब तक तो आपको श्रोता-बिरादरी की आदत पड़ ही गई होगी.हम
आपके प्रेमपूर्ण प्रतिसाद से अभिभूत् हैं और उम्मीद है कि आप
सुरीलेपन को महदूद रखने के इस सिलसिले के हमसफ़र बने रहेंगे.
देश के कई अंचलों में बारिश की आमद हो चुकी है तो कई जगह
सावन अभी भी सूना सूना है. लेकिन संगीत में वह ताक़त है कि
जो मिल जाए उसका उत्सव मनवा देता है और जो नहीं मिला
उसका दर्द भुला देता है. समझ लीजिये कुछ इसी तरह का मजमा
जमा देगी श्रोता बिरादरी की 20 जुलाई की प्रविष्टि.
एक सर्वकालिक गुणी और रचनाशील संगीतकार की बेजोड़ रचना है
यह. श्वेत श्याम कलेवर के दौर में भी संगीत का इन्द्रधनुष रचाती सी.
गीत के बोल ऐसे कि आपको लगे कि ये भाषा तो आप घर में
बोलते आए हैं.....और गायकी...शायद उसे व्यक्त करने के लिये
हमारे शब्द उतने सुरीले नहीं हो सकते; जितनी ये आवाज़ें.
याद रखियेगा; रविवार की सुबह नौ बजे के अनक़रीब श्रोता-बिरादरी
मुख़ातिब होती है आपसे.कल भी ये सिलसिला जारी रहेगा.
हाँ आपको इस पोस्ट से बाख़बर करने का मकसद
इतना भर है कि आप एस.एम.एस. या ई मेल के
ज़रिये श्रोता-बिरादरी की नई पायदान की सूचना
अपने देस-परदेस में बसे मित्रो/परिजनों तक पहुँचा सकें....
आप ख़ुद भी तो श्रोता-बिरादरी का हिस्सा हैं न ?
आइये सुरीलेपन
को संक्रामक बनाएँ.
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 6:36 PM 1 टिप्पणियाँ
श्रेणी बरसात, श्रोता बिरादरी, हिन्दी गीत, हिन्दी फ़िल्म संगीत
Sunday, July 13, 2008
वेदना को संगीतमय बनाती मदन मोहन की कालजयी ग़ज़ल- पुण्यतिथि पर विशेष
आइये पहले आज श्रोता-बिरादरी के सफ़े पर कैफ़ी आज़मी साहब के शब्दों को पढ़ लें....
सन १९७३ मे प्रकाशित तस्वीर हँसते ज़ख़्म की ग़ज़ल है ये.
छोटी बहर की इस ग़ज़ल का शब्दांकन कैफ़ी आज़मी साहब के क़लम से हुआ है जो चेतन आनंद के बेहद पसंदीदा शायर रहे हैं .चेतन जी ने उनसे फ़िल्म हक़ीक़त में भी नग़मानिगारी करवाई थी.महज़ चार अशाअर की इस ग़ज़ल को सादे काग़ज़ पर लिखा पढ़ें तो आप इसे एक अच्छी ग़ज़ल कह कर आगे बढ़ जाएँ लेकिन जब मदन मोहन के संगीत में बुनी धुन से लता मंगेशकर की आवाज़ आपके कानों में पहुँचती है तो आपको शायरी की ताक़त दो गुनी सुनाई देती है.
१४ जुलाई को संगीतकार मदन मोहन की पुण्यतिथि आती है. इसी महीने ने हमसे मोहम्मद रफ़ी जैसा महान गायक भी छीना था.ये ज़िक्र इसलिये की हमारी जानकारी के मुताबिक मदन मोहन और रफ़ी साहब की बरसी पर सबसे ज़्यादा संगीत कार्यक्रम दुनिया भर के छोटे बड़े शहरों में होते हैं . शायद ये इन दोनो सुर-सर्जकों का कमाल ही है कि वह संगीत-प्रेमियों के दिलोदिमाग़ में हमेशा बने रहते हैं. बहरहाल अब ’आज सोचा तो आँसू भर आए’ की बात हो जाए.
लताजी-मदनजी का संग-साथ जब भी चित्रपट गीतों को मिला है तब पूरा संगीत एक रूहानी दुनिया में तब्दील सा हो जाता है.हम इस पत्थर के संसार में कुछ मुलायम हो जाते हैं और कविता और संगीत की सच्चाई हमारे संसारी मन पर तारी हो जाती है. जब जब भी लता-मदन ग़ज़ल को रचते हैं लगता है दुनिया के ये दो बेजोड़ कारीगर किसी तपस्या से इस रचना को शक़्ल दे लाए हैं.मदन मोहन का संगीत गाते हुए लता इमोशन के स्तर पर शीर्ष पर होतीं हैं.
मदन मोहन का वाद्यवृंद डिसिप्लिन की पराकाष्ठा पर है. पहले अंतरे में गिटार के आधार पर इलेक्टॉनिक वाद्य को चीरती उस्ताद रईस ख़ाँ की सितार जैसे लता जी द्वारा गाए जाने वाले मतले को एक सुरीली ज़मीन बख़्शती है.मदन मोहन , लता और रईस खाँ एक संगीत के ज़रिये एक अदभुत वीराने को सजा रहे हैं.वेदना जैसे चट्टानों से झर कर इंसान के कोमल मन में आ समाई है.विरहणी की चित्कार मानो इस ग़ज़ल को मुस्कुराते हुए निभाना चाह रही है.मदन जी इस फ़िल्म का पूरा इम्पैक्ट बनाए रखने के लिये एक इंटरल्यूड में इसी फ़िल्म के दूसरे बेजोड़ गीत तुम जो मिल गए हो की धुन को भी ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है. दर्द को जीते हुए मुस्कुराने को शऊर देती ये ग़ज़ल मदन-लता की जुगलबंदी का सुनहरा सोपान है.
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मदनमोहन के संगीत संसार की खासियत है वेदनामय गीतों को स्वरबद्ध करने में उनकी महारत । ऐसा लगता है कि मदनमोहन के मन में कहीं एक एकाकी व्यक्ति छिपा हुआ था । हम आपको बताना चाहेंगे कि मदनमोहन फौजी रहे थे । और फौजी हाथों ने जब बंदूक को टांगकर साज़ों को हाथ में लिया तो संगदिली रंगदिली में बदल गयी । फौजी नग़मों की रसवर्षा करने वाला मोसिकार बन गया । आज हम मदनमोहन की जितनी पूजा करते हैं और उनके नग़मों की जितनी प्रशंसा करते हैं उतनी उन्हें जीते जी नहीं मिली । और इस बात का उन्हें अफ़सोस रह गया । मदनमोहन की बेमिसाल धुनें कितनी कारगर थीं इसकी मिसाल ये है कि उनके संगीत-ख़ज़ाने की कुछ धुनों को उनके बेटे संजीव कोहली ने यश चोपड़ा की फिल्म 'वीर ज़ारा' में इस्तेमाल किया तो आज के झमाझम संगीतकारों के मल्लयुद्ध में भी मदन मोहन सबसे अलग नज़र आए । मदनमोहन की ये धुनें उस साल की सबसे अच्छी धुनों में शामिल हो गयीं । एक गाने की कितनी कितनी धुनें वो बनाते थे इसकी मिसालें कई जगहों पर हैं । कभी फुरसत से इस बारे में बातें की जायेंगी ।
मदन मोहन जैसे महान संगीत सर्जक को श्रोता-बिरादरी की भावपूर्ण श्रध्दांजली देते हुए यही कहना चाहेंगे कि चित्रपट संगीत की दुनिया के इस करिश्माई कलाकार ने जो कुछ इस संसार को दिया है वह कालातीत है. उनके संगीत में लता मंगेशकर की गायकी को सुनना जैसे इस मायावी संसार से गुम हो जाना है.आइये इस गीत को सुनते हुए संगीतकार मदन मोहन के कालजयी रचना संसार को सलाम कहें. इस गाने को आप यहां देख सकते हैं ।
श्रोता-बिरादरी हर रविवार को तकरीबन नौ बजे के आसपास अपनी साप्ताहिक प्रस्तुति लेकर आती है । ताकि पूरे हफ्ते उस गाने को आत्मसात किया जा सके । पिछले सप्ताह कुछ मित्रों ने गाना ना बजने की शिकायत की थी, उनसे निवेदन है कि कृपया अडोबे फ्लैश-प्लेयर डाउनलोड कर लें । गाना जरूर बजेगा ।
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 8:10 AM 8 टिप्पणियाँ
श्रेणी कैफ़ी आज़मी, मदन मोहन, लता मंगेशकर, श्रोता बिरादरी, हँसते ज़ख़्म, हिदी गीत
Saturday, July 12, 2008
रविवारीय सुबह में कल आ रही है आपकी “मन-मोहन” श्रोता बिरादरी
यह सुरीली सुबह का तीसरा रविवार है.जिस तरह से आपने श्रोता-बिरादरी
को सराहा है, स्नेह दिया है ; हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ चली है.कोशिश है कि
संगीत के महासागर में से कुछ अनमोल मोती चुन कर आप तक पहुँचाएँ.
एक गुज़ारिश को फ़िर दोहराना चाहते हैं;आप जब भी श्रोता-बिरादरी पर
जारी किये गए गीत को सुनें या उसके बारे में पढ़ें तो अपनी टिप्पणी में
इस बात का ज़िक्र ज़रूर करें कि आपको इस रचना में नया क्या सुनाई दिया.
या जब पहले भी कभी आपने इस गीत को सुना है कौन सी ख़ास बात आपको
मोहती रही है.
चलिये तो फ़िर तैयार हो जाइये सुनने के लिये एक अनमोल रचना.
कम्पोज़िशन और कविता के लिहाज़ से ये एक न भुला सकने वाली
कृति है. संगीतकार का कारनामा ऐसा कि धुन तो आप भूल ही नहीं
सकते.गायकी ऐसी कि लगेगा सारे आलम का दर्द यहाँ सिमट आया
है.और शायरी के क्या कहने...कितने सरल शब्दों मे सिचुएशन को
अभिव्यक्त कर रही है. इस रचना को इसी रविवार सुनने
की ख़ास वजह भी है ......आपके कानोंपर इस संगीतकार
पर बरसों-बरस राज जो किया है..
बस कल सुबह ही की तो बात है...मिल बैठ कर सुन लेते हैं
यह गीत श्रोता-बिरादरी की बिछात पर....आइयेगा.
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 2:48 PM 4 टिप्पणियाँ
श्रेणी श्रोता-बिरादरी
Sunday, July 6, 2008
रोशन का कालजयी गीत : छा गए बादल नील गगन पर घुल गया कजरा शाम ढ़ले.
पहले एक वाक़या इस गीत के बारे में सुन लें बाद
में इस गीत में महदूद मिठास की बात.
साहिर लुधियानवी पूरे देश में एक शायर के रूप में अपनी ख़ास पहचान रखते थे. नज़्मों,नग़मों और ग़ज़लों के ज़रिये साहिर साहब ने हमेशा चित्रपट गीतों की गरिमा में इज़ाफ़ा किया. चित्रलेखा की भावभूमि एक भारतीय राजवंश और उसकी राजनर्तकी की थी.आपको याद होगा कि यह भगवतीचरण वर्मा का लिखा उपन्यास था.. बीते दौर में भी मनुष्य की फ़ितरतें तो वहीं थीं जो आजकल है ; यानी लॉबिंग,ईर्ष्या,द्वेश.किसी ने चित्रलेखा के निर्माता के कान भर दिए कि साहिर साहब तो उर्दू के शायर हैं और वे तो गीत लिख ही नहीं सकते वे तो ग़ज़ल के खिलाड़ी हैं.लिखेंगे भी तो उर्दू शब्दों का ताना-बाना रचकर..इस लिहाज़ से इस फ़िल्म का जो बैकड्रॉप है वह तो साकार ही नहीं होगा .जनाब गीत ही तो तय करेंगे इस फ़िल्म का भविष्य.निर्माता ने संगीतकार रोशन से बात की.
रोशन साहब बोले मैं तो साहिर साहब के अलावा किसी और से इस फ़िल्म का काम ही नहीं करवा सकता और जो आपको ये मशवरा दे रहे हैं उनसे पूछिये तो कि किससे लिखवाऊँ चित्रलेखा के गीत.निर्माता बोले मेरे पास भरत व्यास,शैलेन्द्र और कवि प्रदीप के नाम आए हैं.रोशन साहब ने कहा हुज़ूर ये अपने इलाक़े के बड़े नाम हैं और मैं ख़ुद इन सब की ख़ासी इज़्ज़त करता हूँ लेकिन इस फ़िल्म में मेरे संगीत को जिस तरह की कहन की ज़रूरत है ये सारे नाम उस साँचे में फ़बेंगे नहीं. जब बात हाथ से जाने लगी तो रोशन साहब ने निर्माता को सुझाया कि बेहतर होगा आप संगीतकार ही बदल दें.निर्माता को लगा बात अब बिगड़ गई है और कहा रोशन साहब आपकी जो मर्ज़ी मे आए कीजिये पर ये जो इल्ज़ाम है कि चित्रलेखा में साहिर जैसा शायर गीत कैसे लिखेगा ; इसका क्या
करेंगे.रोशन साहब ने कहा मुझ पर छोडिये ये सब.
शाम को रोज़ की तरह साहिर , रोशन साहब के म्युज़िक रूम में नमूदार हुए.रोशन ने पूरा माजरा बताया और कहा साहिर भाई अब सारी ज़िम्मेदारी आपकी है. कहते हैं रोशन साहब नें साहिर के लिये रस-रंजन का इंतज़ाम किया और कहा आज रात यहीं रूककर आप गीत पूरे कीजिये.साहिर साहब ने भी चैलेंज क़ुबूल किया और देखिये क्या बात बनी है.कई लोगों को ये ग़लतफ़हमी रहती है कि गीत साहिर नहीं किसी और के लिखे हुए हैं.साहिर साहब ने चुनौती के रूप में इन गीतों को रचा है.अब आप ही श्रोता-बिरादरी की दूसरी पायदान पर प्रस्तुत इस गीत पर कान लगाइये तो और महसूस कीजिये की हिन्दी गीती परम्परा का कितना अनमोल गीत है यह .एक एक शब्द हीरे जैसे तराशा सा. शब्दकोश में छपने से शब्द और भाषा समृध्द नहीं होती . उसे चाहिये अच्छी कविताओं,गीतों,अफ़सानों और निबंधों का आसरा.ये काम कवि और साहित्यकार ही करता है. फ़िल्म संगीत को इस लिहाज़ से बहुत ज़्यादा श्रेय नहीं दिया जाता कि उसने भाषा की कोई सेवा
की है लेकिन जब ’छा गए बादल’जैसे गीत कान पर पड़ते है तो चित्रपट संगीत के आलोंचकों के कान के जाले झड़ जाते हैं . ये गीत साहित्य की नई इबारत रचता सा मालूम होता है.
अब थोड़ी चर्चा रोशन साहब की.कम लोगों को मालूम है कि वे लख़नऊ के मैरिस कॉलेज के विद्यार्थे रहे थे.राग-रागनियों का उजास उनकी रचनाओं का स्थायी भाव है. कविता की लाजवाब समझ वाले इंसान थे रोशन साहब.पढ़ने लिखने वालों से अच्छी सोहबतें थीं उनकी.रोशन संगीत के पंजाब स्कूल की रिवायत की नुमाइंदगी करते थे लेकिन अपनी मौलिकता को भी बरक़रार रखते. उनकी यह बंदिश एक कालजयी रचना ही नहीं बल्कि संगीत और कविता का एक अज़ीम दस्तावेज़ कहिये इसे.
रफ़ी.आशा जब साथ साथ हों तब पूरा आलम जैसे ख़ूशबूदार हो उठता है. युगल गीत गाते समय इन दोनों में
किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा नहीं एक सुहाना संगसाथ सुनाई देता है. मानो एक दूसरे के हुनर को तस्लीम कर रहे हैं.आशा-रफ़ी शब्द प्रधान गायकी के महारथी गूलूकार हैं.रोशन साहब की इस धुन में कहीं कोई ताने , हरकतें नहीं हैं...एकदम सादा मिज़ाज की कम्पोज़िशन है.कम से कम वाद्य हैं.
हरिप्रसाद चौरसिया की बाँसुरी फ़ॉलो भी कर रही है और इंटरल्यूड (स्थायी और अंतरे के बीच का संगीत) भी बन रही है.जहाँ गायन हो रहा है वहाँ तबला है और जैसे ही वॉयलिन्स का कोरस है या इंटरल्यूड तो सादा ढोलक चल पड़ी है.एक बात ये भी नोट करने की
है कि आशा-रफ़ी ने इस गीत में अपनी आवाज़ को एक सॉफ़्टनेस देकर अपने को अपेक्षाकृत अधिक युवा साबित किया है.
कविता,संगीत और गायकी के लिहाज़ से यह एक अमर गीत हैं लेकिन कम सुना गया है, गोया अंडर प्ले हुआ सा लगता है.ये एक ख़ालिस हिन्दुस्तानी गीत है जिसमें हमारी संस्कृति,पावनता और गरिमा का दीदार है.इन्हीं गीतों की उंगली पकड़कर तो हम अपनी उदात्त तहज़ीब के गंगाजल में स्नान सा सुख पा लेते हैं.
और चलते चलते उस क़िस्से को याद कर लीजिये जिससे हमने अपनी बात शुरू की थी और
साहिर साहब को प्रणाम करते हुए यह प्रश्न कि क्या इस महान शायर को नील-गगन,बेचैन,रैन,ह्र्दय,स्वपन,कजरा, सांझ,व्याकुल और दीप जैसे हिन्दी शब्दों के उर्दू पर्याय नहीं मालूम थे ?आप मेरा इशारा समझ गए न ?
यहां आपको ये भी बताते चलें कि हिंदी सिनेमा में चित्रलेखा के साथ एक दुर्लभ तथ्य जुड़ा हुआ है । केदार शर्मा ने चित्रलेखा के नाम से सन 1941 में एक फिल्म बनाई थी । जिसमें मेहताब थीं । संगीत झंडे खां और ए0एस0ज्ञानी का था । सन 1964 में उन्होंने फिर से चित्रलेखा बनाई । एक ही निर्देशक ने ऐसा शायद ही कभी किया होगा । चित्रलेखा संगीकार रोशन के करियर की भी एक बेहद महत्त्वपूर्ण फिल्म थी । और इसके संगीत ने रोशन को भी कालजयी बना दिया था । तो चलिए रोशन, साहिर, रफी, आशा सबको सलाम करते हुए सुनें ये गीत । चलते चलते इतना कहना चाहूंगा कि आज के गीतकारों ने कजरा, बादल और सांझ जैसे शब्दों को अपने सस्ते गीतों में कितना डी-ग्रेड कर दिया है । गीत ऐसे भी हुआ करते थे । इस गाने को फुरसत निकालकर यू ट्यूब पर देखें ।
छा गये बादल नीलगगन पर घुल गया कजरा सांझ ढले
देख के मेरा मन बेचेन
नैन से पहले हो गयी रैन
आज हृदय के स्वप्न फले
घुल गया कजरा सांझ ढले ।।
रूप की संगत और एकांत
आज भटकता मन है शांत
कह दो समय से थमके चले
घुल गया कजरा सांझ ढले ।।
अंधियारों की चादर तान
एक होंगे दो व्याकुल प्राण
आज ना कोई दीप जले
घुल गया कजरा सांझ ढले ।।
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 9:43 AM 8 टिप्पणियाँ
श्रेणी आशा भोसले, चित्रलेखा, मो.रफ़ी, रोशन, श्रोता-बिरादारी, साहिर
Saturday, July 5, 2008
कल फ़िर हाज़िर हो रही है आपकी अपनी सुरीली श्रोता-बिरादरी.
वादे के मुताबिक रविवार की सुबह
कविता,संगीत और गायकी के लिहाज़ से
एक बेहतरीन रचना लेकर आ रही है आपकी
अपनी श्रोता-बिरादरी.
एक ऐसे संगीतकार का कारनामा जिसके नाम से रोशन है
फ़िल्म संगीत में मेलडी का सुदीर्घ कारवाँ.
इस गीत को लिखा है फ़िल्म संगीत में हिन्दी की
विशिष्टता का रंग घोलने वाले क़लम के जादूगर ने.
गाया है अपनी बलन के दो यशस्वी गायकों ने जिनकी
आवाज़ में यह रचना एक प्यार भरे बादल की मानिंद
बरसी है श्रोताओं के दिल के नील-गगन में.
तो मिलते हैं रविवार 6 जुलाई को सुबह तक़रीबन
9 बजे श्रोता-बिरादरी की सुरीली बिछात पर.
आ रहे हैं न.....
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 5:35 PM 1 टिप्पणियाँ
श्रेणी श्रोता-बिरादरी, हिन्दी फ़िल्मी-गीत