सन १९५५ की फ़िल्म गरम कोट में अमरनाथ के संगीत निर्देशन में मजरूह साहब का यह गीत पूरब के लोकगीतों की छाप लिये हुए है. संयोग ही हे कि एक बार फ़िर चाँद पर केन्द्रित गीत आपको लता स्वर उत्सव में सुनने को मिल रहा है. ये गीत आपको यादों के उन गलियारों की सैर करवाता है जहाँ गीतों का माधुर्य एक अनिवार्यता के रूप में चित्रपट संगीत का हिस्सा का हुआ करती थी.
चौंकाता है इस गीत में लताजी के स्वर में पत्ती लगना. इस पत्ती लगने को शास्त्रीय संगीत के पण्डित दुर्गुण मानते हैं.इसे पं.ओंकारनाथ ठाकुर और प.कुमार गंधर्व की गायकी में भी सुना गया है और काकू प्रयोग कहा गया है.लेकिन यदि हम शास्त्र की ओर न भी जाना चाहते हैं तो मलिका ए ग़ज़ल बेग़म अख़्तर को सुन लें जिनकी आवाज़ एक ख़ास तरह से फ़टती सुनाई देतीं हैं और अनूठी मिठास का आलोक रचतीं हैं.
कुछ जानकार इसे स्वर में पत्ती लगना भी कहते हैं. और इस सुरीले फ़टने को किसी और शब्द कहने का ज़रिया न होने से कोई और नाम देना भी मुमकिन नहीं है. तो आप ऐसा करें कि इस गीत को सुनते हुए यहाँ हमारी पोस्ट पर निगाह भी रखें. जहाँ जहाँ भी लताजी के स्वर में पती लगी है वहाँ गीत के बोल को आपकी सुविधा के लिये अण्डरलाइन किया गया है.लताजी इतनी सिध्दहस्त गायिका हैं कि गीत की मांग और संगीत निर्देशक अमरनाथजी निर्देशन का मान रखते हुए एक ख़ास जगह पर तीनों अंतरों में एक शब्द विशेष पर पत्ती लगा रहीं हैं. वैसे इस तरह पती का लगना नैसर्गिक रूप से ही संभव होता है. लेकिन यहीं तो लता करिश्मा कर गईं है. इस तरह से स्वर को थोड़ा फ़टा दिखा कर लोक-संगीत की गायकी का स्मरण दिलवाने का प्रयास भी संगीतकार कर रहा है. वह जताना चाहता है भोजपुरी गीतों की परम्परा के अनुरूप ही लताजी का स्वर उस अनूठी मिठास को सिरज रहा है.
लता मंगेशकर माधुरी का अमृत सरोवर है.उसमें डूबकर कुछ भी निकले , ग़रीब कानों की अमीर सौग़ात बन जाता है. बस सुनते रहिये;और बुरे से भले बनते रहिये. लता मंगेशकर ने जो आवाज़ पाई है सो तो पाई है लेकिन उस आवाज़ के आगे उन्होंने जो एक गरिमामय,शास्वत और शालीन नारी ह्र्दय-धन पाया है उसकी नकल नहीं हो सकती. सांरगी के इंटरल्यूड के साथ कोकिल-कंठी लता मंगेशकर को सुनते जाइये और चंदा को घर बुला लीजिये.
घर आजा मोरे राजा, मोरे राजा आजा
तेरे बिना चंदा उदास फिरे
घर आजा मोरे राजा, मोरे राजा आजा, आजा
तेरा नाम लेके रूठे, कहना ना माने मेरा -२
इत उत लेके डोलूँ, चंदा न सोए तेरा, चंदा न सोए तेरा
कि तेरे बिना चंदा उदास फिरे
आजा रे नन्हा तेरा बहले नहीं बहलाए
कुम्हलाया मुखड़ा हाए मोसे न देखा जाए -२
मोसे न देखा जाए
कि तेरे बिना चंदा उदास फिरे
आजा रे अब तो आजा मेरे भी थके दो नैना
अँगना अँधेरा छाया गया दिन आई रैना -२
गया दिन आई रैना
कि तेरे बिना चंदा उदास फिरे
घर आजा मोरे राजा, मोरे राजा आजा, आजा
फिल्म : गरम कोट 1955
संगीत: अमरनाथ
गीत: मजरूह सुल्तानपुरी
कथा: राजेन्द्र सिंह बेदी
(अजाशत्रु का वक्तव्य लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन संग्रहालय के प्रकाशन लता और सफर के साथी से साभार)
चौंकाता है इस गीत में लताजी के स्वर में पत्ती लगना. इस पत्ती लगने को शास्त्रीय संगीत के पण्डित दुर्गुण मानते हैं.इसे पं.ओंकारनाथ ठाकुर और प.कुमार गंधर्व की गायकी में भी सुना गया है और काकू प्रयोग कहा गया है.लेकिन यदि हम शास्त्र की ओर न भी जाना चाहते हैं तो मलिका ए ग़ज़ल बेग़म अख़्तर को सुन लें जिनकी आवाज़ एक ख़ास तरह से फ़टती सुनाई देतीं हैं और अनूठी मिठास का आलोक रचतीं हैं.
“जिसे गाने में बोलना आ जाए वह ज़माने पर छा गया. याद रहे,बातचीत करना गायन नहीं है पर सारा गायन बातचीत की सहजता तक पहुँचने को तरसता है.नये ज़माने के गायक-गायिका समझ लें कि लता ने कभी गाया ही नहीं है. गाने को ’बोला’ है.ख़ुद लता कहतीं हैं ’मुझे बातचीत जितना आकर्षित करती है उतना गाना नहीं’....यही कारण कि लता इफ़ेट को कभी पूरा नहीं समझा जा सकता .बस सुनिये और आनंद से माथा पीटते रहिये...”
अजातशत्रु
अजातशत्रु
कुछ जानकार इसे स्वर में पत्ती लगना भी कहते हैं. और इस सुरीले फ़टने को किसी और शब्द कहने का ज़रिया न होने से कोई और नाम देना भी मुमकिन नहीं है. तो आप ऐसा करें कि इस गीत को सुनते हुए यहाँ हमारी पोस्ट पर निगाह भी रखें. जहाँ जहाँ भी लताजी के स्वर में पती लगी है वहाँ गीत के बोल को आपकी सुविधा के लिये अण्डरलाइन किया गया है.लताजी इतनी सिध्दहस्त गायिका हैं कि गीत की मांग और संगीत निर्देशक अमरनाथजी निर्देशन का मान रखते हुए एक ख़ास जगह पर तीनों अंतरों में एक शब्द विशेष पर पत्ती लगा रहीं हैं. वैसे इस तरह पती का लगना नैसर्गिक रूप से ही संभव होता है. लेकिन यहीं तो लता करिश्मा कर गईं है. इस तरह से स्वर को थोड़ा फ़टा दिखा कर लोक-संगीत की गायकी का स्मरण दिलवाने का प्रयास भी संगीतकार कर रहा है. वह जताना चाहता है भोजपुरी गीतों की परम्परा के अनुरूप ही लताजी का स्वर उस अनूठी मिठास को सिरज रहा है.
लता मंगेशकर माधुरी का अमृत सरोवर है.उसमें डूबकर कुछ भी निकले , ग़रीब कानों की अमीर सौग़ात बन जाता है. बस सुनते रहिये;और बुरे से भले बनते रहिये. लता मंगेशकर ने जो आवाज़ पाई है सो तो पाई है लेकिन उस आवाज़ के आगे उन्होंने जो एक गरिमामय,शास्वत और शालीन नारी ह्र्दय-धन पाया है उसकी नकल नहीं हो सकती. सांरगी के इंटरल्यूड के साथ कोकिल-कंठी लता मंगेशकर को सुनते जाइये और चंदा को घर बुला लीजिये.
घर आजा मोरे राजा, मोरे राजा आजा
तेरे बिना चंदा उदास फिरे
घर आजा मोरे राजा, मोरे राजा आजा, आजा
तेरा नाम लेके रूठे, कहना ना माने मेरा -२
इत उत लेके डोलूँ, चंदा न सोए तेरा, चंदा न सोए तेरा
कि तेरे बिना चंदा उदास फिरे
आजा रे नन्हा तेरा बहले नहीं बहलाए
कुम्हलाया मुखड़ा हाए मोसे न देखा जाए -२
मोसे न देखा जाए
कि तेरे बिना चंदा उदास फिरे
आजा रे अब तो आजा मेरे भी थके दो नैना
अँगना अँधेरा छाया गया दिन आई रैना -२
गया दिन आई रैना
कि तेरे बिना चंदा उदास फिरे
घर आजा मोरे राजा, मोरे राजा आजा, आजा
फिल्म : गरम कोट 1955
संगीत: अमरनाथ
गीत: मजरूह सुल्तानपुरी
कथा: राजेन्द्र सिंह बेदी
(अजाशत्रु का वक्तव्य लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन संग्रहालय के प्रकाशन लता और सफर के साथी से साभार)
2 टिप्पणियाँ:
स्वर सम्राघी का लकब ऐसे ही नही मिल जाता thanks to all who contribute this lovely song......
एक-एक शब्द सही है आपका। गीत भी बहुत सुन्दर चुना है।
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