कभी कभी लगता है किसी किसी संगीतकार के अवचेतन में ऐसा भाव भी उमड़ता होगा कि चलो मैं ऐसी एक दो रचना भी बना डालूँ जो मेरे न रहने के बाद ज़माने को मेरी याद दिला कर द्रवित करती रहे.
आज लता स्वर उत्सव में बजने वाला गीत स्वर-कोकिला और संगीतकार मदनमोहन की अनुजा लता मंगेशकर की ओर से अपने प्यारे मदन भैया को पेश की गई ख़िराज ए अक़ीदत है. वस्तुत: यह एक ग़ज़ल है जिसके लिये मदनजी की प्रतिष्ठा जग-ज़ाहिर है. मजरूह सुल्तानपुरी के क़लम से रची गई इस बंदिश को मदनमोहन ने जैसा सिरजा है लताजी उससे कहीं अधिक डूब कर गाया है.इस रचना को सुनते हुए यह भी बताते चलें कि मदनमोहन ने पारम्परिक ग़ज़ल गायकी को फ़िल्म संगीत के रंग में उतारा और उसे अंजाम दिया लता मंगेशकर जैसी अद्वितीय आवाज़ ने.अभिजात्य वर्ग में रहते हुए भी मदनमोहनजी और मौसीक़ी का साथ रूहानी था. उनकी सरज़मीन पंजाब की थी लेकिन संगीत में शिष्टता और गरिमा कूट कूट कर भरी थी.
फ़िल्म बाग़ी में मजरूह को नग़मा-निगार के रूप में सुनना भी एक अनुभव है क्योंकि इसके बाद फ़िल्म दस्तक में की बेजोड़ रचनाओं में एक बार फ़िर लता-मजरूह-मदनमोहन की तिकड़ी ने करिश्मा बरपा है.मदनमोहन की रचनाएँ सुनते हुए राजा मेहंदी अली ख़ाँ और राजेन्द्रकृष्ण का ही स्मरण हो आता है लेकिन बाग़ी की ये ग़ज़ल मदनमोहन की स्मृति में आयोजित होने वाले मजमों में बिन भूले गाई जाती है.
यह मदनमोहन की अपने संगीत के लिये ईमानदारी का तक़ाज़ा ही है कि लता मदन-घराने में कुछ अलग ही सुनाई देतीं हैं. लताजी इस सत्य से बाख़बर थीं कि विकट प्रतिभा,श्रम,चिर-अतृप्ति की आग का दूसरा नाम मदनमोहन है. यह सही भी है क्योंकि अनिल विश्वास के बाद सिर्फ़ मदनमोहन के यहाँ ऐसी करामाती रचनाओं का ख़ज़ाना मौजूद है. लताजी मदनमोहन को गाते वक़्त किसी दूसरी दुनिया की वासिनी सुनाई देतीं हैं. वे मदनजी के गीतों में कुछ अधिक डिवाइन हो गईं हैं.
इस ग़ज़ल को भी लताजी ने समय के पार जाकर गाया है. वे मजरूह के लफ़्ज़ों को अपना स्वर देते वक़्त कहीं दूर आसमान से दर्द ले आईं हैं.मदनजी ने इस गीत के इंटरल्यूड्स में वॉयलिन्स का भराव दिया है. यह रचना वस्तुत:मदनजी के आकाशवाणी से गहन जुड़ाव का दस्तावेज़ भी है क्योंकि सत्तर के दशक तक आकाशवाणी केन्द्रों से इस रंग की अनेकों सुगम संगीत रचनाओं का सिलसिला जारी रहा है.गाना सुनते समय लताजी को फ़ॉलो करते वॉयलिन को भी ध्यान से सुनियेगा;आप महसूस करेंगे कि उसने इस ग़ज़ल के दर्द में इज़ाफ़ा ही किया है.
एक बात विशेष रूप से ग़ौर फ़रमाइयेगा कि मदनजी ने सिर्फ़ दो मतले (अंतरे) इस ग़ज़ल में लिखवाए हैं लेकिन उसका प्रभाव समग्र गीत सा रहा है. रचना सुनते वक़्त ये भी ध्यान दीजियेगा कि स्थायी और अंतरे में मदनजी ने लताजी से क्लिष्टतम मुरकियाँ करवाईं हैं लेकिन मजाल है कि कहीं भी किसी शब्द का दम घुट रहा हो.
मित्रों ! वादा था कि कुछ लोकप्रिय रचनाएँ भी लता स्वर उत्सव में शुमार करेंगे सो साहब मुलाहिज़ा फ़रमाएँ ये ग़ज़ल.बेशक जन्मोत्सव की बेला में इस ग़मग़ीन गीत को बजाने पर कुछ मित्रों को ऐतराज़ हो सकता है लेकिन मक़सद सिर्फ़ इतना सा है कि लता-मदन युग भावपूर्ण स्मरण इस उत्सव में अवश्य हो.
हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी, न जाने हम कहाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी...
इसी अंदाज़ से झूमेगा मौसम गाएगी दुनिया -2
मोहब्बत फिर हसीं होगी, नज़ारे फिर जवाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी, न जाने हम कहाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी...
न हम होंगे, न तुम होगे, न दिल होगा, मगर फिर भी-2
हज़ारों मंज़िलें होंगी, हज़ारों कारवाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी, न जाने हम कहाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी...
फिल्म Baghi (बागी) 1953
संगीत - मदन मोहन
गीत- मज़रूह सुल्तानपुरी
आज लता स्वर उत्सव में बजने वाला गीत स्वर-कोकिला और संगीतकार मदनमोहन की अनुजा लता मंगेशकर की ओर से अपने प्यारे मदन भैया को पेश की गई ख़िराज ए अक़ीदत है. वस्तुत: यह एक ग़ज़ल है जिसके लिये मदनजी की प्रतिष्ठा जग-ज़ाहिर है. मजरूह सुल्तानपुरी के क़लम से रची गई इस बंदिश को मदनमोहन ने जैसा सिरजा है लताजी उससे कहीं अधिक डूब कर गाया है.इस रचना को सुनते हुए यह भी बताते चलें कि मदनमोहन ने पारम्परिक ग़ज़ल गायकी को फ़िल्म संगीत के रंग में उतारा और उसे अंजाम दिया लता मंगेशकर जैसी अद्वितीय आवाज़ ने.अभिजात्य वर्ग में रहते हुए भी मदनमोहनजी और मौसीक़ी का साथ रूहानी था. उनकी सरज़मीन पंजाब की थी लेकिन संगीत में शिष्टता और गरिमा कूट कूट कर भरी थी.
फ़िल्म बाग़ी में मजरूह को नग़मा-निगार के रूप में सुनना भी एक अनुभव है क्योंकि इसके बाद फ़िल्म दस्तक में की बेजोड़ रचनाओं में एक बार फ़िर लता-मजरूह-मदनमोहन की तिकड़ी ने करिश्मा बरपा है.मदनमोहन की रचनाएँ सुनते हुए राजा मेहंदी अली ख़ाँ और राजेन्द्रकृष्ण का ही स्मरण हो आता है लेकिन बाग़ी की ये ग़ज़ल मदनमोहन की स्मृति में आयोजित होने वाले मजमों में बिन भूले गाई जाती है.
“लता ने जो गा दिया बस वही अल्टीमेट है.इसके आगे कोई नहीं जा सकता.इससे बेहतर कोई नहीं गा सकता.उन्होंने दिल और लगन से जो गा दिया वह आख़िरी नमूना है इस धरती पर.अब लता से हटकर लता की बलना का कोई नया गायक लाना है तो कुदरत को दूसरी लता ही पैदा करे.लता को हम गान-योगिनी कहें तो क्या ग़लत होगा ? - अजातशत्रु
यह मदनमोहन की अपने संगीत के लिये ईमानदारी का तक़ाज़ा ही है कि लता मदन-घराने में कुछ अलग ही सुनाई देतीं हैं. लताजी इस सत्य से बाख़बर थीं कि विकट प्रतिभा,श्रम,चिर-अतृप्ति की आग का दूसरा नाम मदनमोहन है. यह सही भी है क्योंकि अनिल विश्वास के बाद सिर्फ़ मदनमोहन के यहाँ ऐसी करामाती रचनाओं का ख़ज़ाना मौजूद है. लताजी मदनमोहन को गाते वक़्त किसी दूसरी दुनिया की वासिनी सुनाई देतीं हैं. वे मदनजी के गीतों में कुछ अधिक डिवाइन हो गईं हैं.
इस ग़ज़ल को भी लताजी ने समय के पार जाकर गाया है. वे मजरूह के लफ़्ज़ों को अपना स्वर देते वक़्त कहीं दूर आसमान से दर्द ले आईं हैं.मदनजी ने इस गीत के इंटरल्यूड्स में वॉयलिन्स का भराव दिया है. यह रचना वस्तुत:मदनजी के आकाशवाणी से गहन जुड़ाव का दस्तावेज़ भी है क्योंकि सत्तर के दशक तक आकाशवाणी केन्द्रों से इस रंग की अनेकों सुगम संगीत रचनाओं का सिलसिला जारी रहा है.गाना सुनते समय लताजी को फ़ॉलो करते वॉयलिन को भी ध्यान से सुनियेगा;आप महसूस करेंगे कि उसने इस ग़ज़ल के दर्द में इज़ाफ़ा ही किया है.
एक बात विशेष रूप से ग़ौर फ़रमाइयेगा कि मदनजी ने सिर्फ़ दो मतले (अंतरे) इस ग़ज़ल में लिखवाए हैं लेकिन उसका प्रभाव समग्र गीत सा रहा है. रचना सुनते वक़्त ये भी ध्यान दीजियेगा कि स्थायी और अंतरे में मदनजी ने लताजी से क्लिष्टतम मुरकियाँ करवाईं हैं लेकिन मजाल है कि कहीं भी किसी शब्द का दम घुट रहा हो.
मित्रों ! वादा था कि कुछ लोकप्रिय रचनाएँ भी लता स्वर उत्सव में शुमार करेंगे सो साहब मुलाहिज़ा फ़रमाएँ ये ग़ज़ल.बेशक जन्मोत्सव की बेला में इस ग़मग़ीन गीत को बजाने पर कुछ मित्रों को ऐतराज़ हो सकता है लेकिन मक़सद सिर्फ़ इतना सा है कि लता-मदन युग भावपूर्ण स्मरण इस उत्सव में अवश्य हो.
हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी, न जाने हम कहाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी...
इसी अंदाज़ से झूमेगा मौसम गाएगी दुनिया -2
मोहब्बत फिर हसीं होगी, नज़ारे फिर जवाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी, न जाने हम कहाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी...
न हम होंगे, न तुम होगे, न दिल होगा, मगर फिर भी-2
हज़ारों मंज़िलें होंगी, हज़ारों कारवाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी, न जाने हम कहाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी...
फिल्म Baghi (बागी) 1953
संगीत - मदन मोहन
गीत- मज़रूह सुल्तानपुरी
(अजातशत्रुजी के वक्तव्य लता दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय के प्रकाशन बाबा तेरी सोन चिरैया से साभार)
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4 टिप्पणियाँ:
मदनमोहन जी के संगीत में लता जी को सुनना अद्भुत होता है.
मुझे दस्तक के गीत बहुत अच्छे लगते हैं, खासकर 'माई री मैं कासे कहूँ' दो महान संगीत साधकों में तुलना नहीं करनी चाहिए, लेकिन यह गीत लता जी से ज्यादा अच्छा मदनमोहन जी की आवाज़ में लगता है.
श्रोता-बिरादरी में श्री आजातशत्रु जी से यह पहल परिचय है...कम से कम मैं तो मानने लगा हूँ कि लता जी से इतनी आत्मीयता रखने वाला
और लता जी का वैसा गुणग्राही शायद ही कोई और हो...
मदन मोहन जी के बारे में जितना जान ने को मिले कम हैं. वह पंजाब से थे यह
अभी जाना...मदन मोहन जी हिंदी फिल्म संगीत के करिश्मा थे...उनके द्वारा संगीत कि
बारिश तो हुई थी पर ओस-सी. "मदन मोहन घराना" शब्द भी सूचक है क्योंकि इस
घराने से आया हर गाना घराने की स्पष्ट 'छाप' (Brand) लिए हुआ था. और यह भी
उतना ही सत्य है "मदन मोहन जी और मौसीकी का साथ रूहानी था".
कुछ संगीत रचनाएं लोकप्रिय होते हुए भी उनकी मधुरता ओर impact बनी रहती है.
"हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयां होंगे..." लता-मदन मोहन और मझरूह जी
की इस रचना का चयन उत्तम.
हर दिन हर नई पोस्ट "उत्सव" ही तो है.
मुझे संगीत का कोई ज्ञान नही किन्तु कई संगीतकारों के गाने सुनकर बता देती हूँ कि इसका संगीत किसने तैयार किया है सचिन बर्मन जी,मदनमोहन जी और नैय्यर साहब के संगीत को विशेष कर.मदन जी की गजले लाजवाब है.माई री मैं कासे कहूँ' उनकी भारी भारी आवाज में गजब लगता है.बेमिसाल.शायद रजा मेहँदी अली खान साहब ने लिखा था'मुझको बहा ले जाए ऐसी लहर कोई आये न'गाते हुए तो मदन मोहन जी जैसे कहीं दूर बहा ले जाते हैं अपने संगीत की लहरों पर बैठा कर .
उम्मीद है इस ब्लॉग में मुझे बहुत प्यारे प्यारे गाने सुनने को मिलेंगे.बहुत मेहनत करते हैं आप लोग.जूनून की हद तक....नतमस्तक हूँ इस जूनून के नाम पर.
You have mentioned about the sadness of the song Baharen..when Lataji is singing does it really matter if the song is sad or jovial and that to of Madan Mohanji
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