अपनी धुनों में ख़ालिस भारतीयपनका जादू जगाने वाले संगीतकार एस.एन.त्रिपाठी की सन 1959 में आई फ़िल्म है रानी रूपमती। त्रिपाठीजी के ज्यादातर काम में शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत का असर सुनाई देता है। परवरदिगारे आलम तेरा ही है सहारा (हातिमताई) जरा सामने तो आओ छलिये (जनम जनम के फ़ेरे) झूमती चली हवा याद आ गया कोई (संगीत सम्राट तानसेन) के अलावा चौथा गीत था आ लौट के आजा मेरे मीत (रानी रूपमती) इसी फ़िल्म के एक अन्य गीत का ज़िक्र श्रोता-बिरादरी के पहले पुष्प के रूप में आज कर रहे हैं....उड़ जा भंवर और आ जा आ जा भँवर ....
एस एन त्रिपाठी की ज़्यादातर फ़िल्मे पौराणिक या भक्ति फ़िल्में ही हैं लेकिन उसमें भी उन्होंने मेलडी के ऐसे कलेवर इजाद किये हैं जो समग्र रूप से चित्रपट संगीत के सुरीलेपन की नई इबारत रचते हैं। उनकी प्रयोगधर्मिता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज प्रस्तुत गीत को उन्होंने राग दरबारी में कम्पोज़ कर पहले मन्ना डे गवाया है और फ़िर यही गीत राग सारंग में स्वर-मूर्ति लता मंगेशकर के कंठ झरा है।
गाने का आग़ाज़ मन्नाडे की खरजदार आवाज़ के हल्के-से आलाप से होता है । मन्ना डे जिनकी प्रतिभा का सही आकलन भारतीय फिल्म संगीत में नहीं हो सका । उन्हें बहुधा शास्त्रीय और मज़ाहिया गानों तक ही सीमित कर दिया गया था । ज़रा इस गाने में मन्नाडे के कंठ की कलाबाज़ी सुनिए और नतमस्तक हो जाईये उनकी प्रतिभा और तैयारी के आगे । गाने के दो भाग हैं--एक में मन्ना डे भंवरे को उड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं और दूसरे में लता मंगेशकर रानी रूपमती के रूप में भंवरे को लौटने यानी संसार में बने रहने को प्रेरित करती हैं । कवि भरत व्यास ने इस गाने को आध्यात्मिकता की जो ऊंचाई दी है वो अनमोल है । आमतौर पर हम गाने तो सुनते हैं लेकिन ज्यादातर होता ये है कि वाद्य-संयोजन और गीत के बोलों पर हमारा ध्यान नहीं जाता । श्रोता-बिरादरी के ज़रिए हम ऐसा समुदाय खड़ा करना चाहते हैं जो गाने की रस-वर्षा का सही आनंद ले सके । ज़रा इस गाने के बोलों पर तो ग़ौर कीजिए---
देख वो सूरज की किरणें आ रही हैं झूमतीं
चल गगन ओर, तेरा मुख हवाएं चूमतीं
बावरे उठ ज्ञान से मखमल का घेरा दूर कर
क्या बात है !!! मन्ना दे जैसी द्रुत गति प्रदान करते हैं इस गाने में उससे भला कौन मन-भंवर ना उड़ जायेगा । कमाल है । हमें पूरा यक़ीन है कि श्रोता-बिरादरी की इस पहली पेशकश की गूंज आपके मन-आंगन में हफ्ते भर तो क्या सदा-सर्वदा फैलेगी । इस गाने के अंत में वाद्यों से भंवरे की जो गुंजार पैदा की गयी है उस पर आपका ध्यान ज़रूर जाना चाहिए । ये भी जिक्र कर दें कि जिस ज़माने में ये गाना आया था तब गायक, गायिका और पूरे साजिंदों के साथ संगीतकार एक टेक में गाना रिकॉर्ड करते थे, पूरी रिहर्सल के साथ । इस दृष्टि से भी ये गीत 'स्टैन्डिंग ओवेशन' का हक़दार है ।
यहां उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ां की बात याद आती है । संभवत: लता जी की आवाज़ के एक गाने को सुनकर वो ठिठक गए थे और उन्होंने ये कहा था कि तीन मिनिट के गाने में जो असर लता पैदा करती हैं, वो शास्त्रीय संगीत के महारथियों से बढ़कर है । यहां एक बात और रेखांकित करनी है और वो ये कि फिल्म-संगीत में एक ज़माने में शास्त्रीय-संगीत का अनिवार्य स्थान था । और ये जो 'था' शब्द है ये दुखद है । काश कि हम इस 'था' को 'है' में बदल सकते ।
प्रस्तुत गीत में लताजी ने तीन मिनट में गूलूकारी का जो जलवा दिखाया है वह उन लोगों को एक मुँहतोड़ जवाब है जो फ़िल्म संगीत को अछूत मानते हैं। तीव्र तानों से लताजी जिस तरह से इस बंदिश को बहला रही हैं वह उनके कंठ में समोए क्लासिकल रियाज़ की तसदीक करने के लिये काफ़ी है। जब वे इस गीत में शास्त्रीय मुरकियाँ (आ जा शब्द को जिस घुमावदार तरीक़े से वे गा रही हैं जिसमें ’आ’ कार की झन्नाहट सुनाई देती है जैसे तपते तवे पर छन्न से कोई पानी की बूँदे छींट दे)
गीत के अंत में जिस तरह से अति-तार सप्तक (कंठ की जो सीमा हैं उसके परे जाकर पराकाष्ठा को छूने का करिश्मा) यहाँ लताजी रानी रूपमती के लिये गाते हुए गायन विधा की महारानी बन कर उभरीं हैं। चित्रपट गायन में गायक को हर तरह का रंग कैसे निभाना चाहिये ये तो कोई लता जी से सीखे.कहना बेमानी न होगा कि लताजी एक श्रेष्ठ विद्यार्थी रहीं है, वे संगीतकार की रचना को जिस तरह से अपने गले से उतार देती है तब लगता है धुन निहाल और संगीतकार मालामाल हो गया है.रानी रूपमती एक ’एरा’ फ़िल्म है ऐसे में गायन में एक शहाना तबियत सुनाई देना चाहिए जिसे लता मंगेशकर के अलावा और कौन गा सकता है।
इस गीत में न केवल गायन का वैभव है बल्कि नृत्य के तेवर भी जलवागर हो रहे हैं। गायन में अति-तीव्रता और लयकारी भी अति-द्रुत पर जा पसरी है इस गीत में। एस.एन.त्रिपाठी के ज़रिये हिन्दी चित्रपट की अनमोल धरोहर है ये गीत। सारे विशेषणों को लिख देने के बाद भी हमारा बावरा मन यह कहने तो विवश है कि लता मंगेशकर अपनी गायकी के ज़रिये एक गान-सुन्दरी रूपमती और उसके अनन्य प्रेमी बाजबहादुर और उनके ऐतिहासिक शिल्प मांडू को एक लम्हा हमारे मन-मंडप मे जीवंत कर देती हैं। अक़्ल काम नहीं करती रूपमती को याद करें या लता मंगेशकर को सलाम करें।
मन्ना डे की पंक्तियां
उड़ जा भंवर माया कमल का आज बंधन तोड़ के
रंग रूत का लाल और रूप भी तो कमाल है
जिन पखुरियों को तो झूले, वो तेरा जंजाल तेरा जाल है
कहीं और जा जा जा के दिल लगा कलियों की गलियां छोड़ के
देख वो सूरज की किरणें आ रही हैं झूमतीं
चल गगन ओर, तेरा मुख हवाएं चूमतीं
बावरे उठ ज्ञान से मखमल का घेरा दूर कर
तन है काला इसलिए मन का अंधेरा दूर कर, दूर कर
तुझको बुलाये रे,
तुझको बुलाता है सवेरा देख मुखड़ा मोड़के
उड़ जा भंवर ।
उड़ जा उड़ जा उड़ जा भंवर ।।
लता जी की पंक्तियां
छोड़ चला क्यूँ ओ निर्मोही कैसा तेरा प्यार
रो रो करे पुकार कँवलिनि बीती जाये बहार
आजा आजा भँवर सूनी डगर सूना है घर आजा
ओ आजा आजा भँवर सूनी डगर सूना है घर आजा
ओ आजा
न सता रे आ रे आ रे
मोरी अँखिया उदासी, तोरे दरस की प्यासी
पल पल छिन छिन देखें राह तिहारी
आजा आजा भँवर सूनी डगर सूना है घर आजा
ओ आजा
गुन गुन धुन सुन सुन तेरी हरजाई
तन मन की रे मैंने सुध बिसराई -२
हरजाई
आजा आजा भँवर सूनी डगर सूना है घर आजा
आजा भँवर सूनी डगर
आजा -६
आजा आजा भँवर सूनी डगर सूना है घर आजा आ ।।
श्रोता-बिरादरी साप्ताहिक-ब्लॉग होगा । हर रविवार को लगभग नौ बजे के आसपास आप यहां पधारें और हर हफ्ते एक कालजयी गीत का रसास्वादन करें ।
Saturday, June 28, 2008
उड़ जा भंवर माया कमल का आज बंधन तोड़ के--श्रोता बिरादरी की पहली पेशकश
Posted by यूनुस खान, संजय पटेल, सागर चन्द नाहर at 9:17 PM
श्रेणी Lata Mangeshkar, S N Tripathi, एस एन त्रिपाठी, लता मंगेशकर
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7 टिप्पणियाँ:
कैसी तान सुनाई आपने बस सुनते जाने को मन होता है, बधाई आपको, जो ढूढ़ लाये ऐसा नायाब मोती, क्या शब्द, क्या संगीत, और आवाज़ ...ओह....मज़ा बाँध दिया साब
Laajawaab!!
Great.
Thanx.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
श्रोता बिरादरी ko badhaayii v shubhkaamnaayen...nirali post..
आनंदम. आनंदम. शानदार शुरुआत. बधाई.
badhiya shuruaat... bharat vyas ke lyrics behtareen hain
बहुत बेहतरीन शुरुवात की है, अनेकों शुभकामनाऐं.
क्या बात है !!! कमाल है !!!
'स्टैन्डिंग ओवेशन' का हक़दार है यह ब्लोग!!!
गाना तो लाजवाब है ही, आपके शब्दो की लयकारी भी कमाल की है.
क्या खूब अभिव्यक्ती है - जो अनुभव से ही आ सकता है. आपने लिखा है----
गीत के अंत में जिस तरह से अति-तार सप्तक (कंठ की जो सीमा हैं उसके परे जाकर पराकाष्ठा को छूने का करिश्मा) and so on--
श्रोता बिरादरी को शुभकामनाये . चलो मनाये की येह अविरत चलती रहेगी. आमीन.
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